23.6.10

ये ट्रेन मिस कर दो विनय


पशुपति शर्मा

(माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्‍वविद्यालय का पूर्व छात्र, दस्तक का साथी, हिंदुस्तान भागलपुर का पत्रकार और सबसे बढ़कर सबका प्यारा विनय तरुण चला गया, हमेशा-हमेशा के लिए…)


मंगलवार की रात नौ बजे फास्ट ट्रैक का बुलेटिन चल रहा था। मैं पीसीआर में बुलेटिन करवा रहा था, इसी दौरान प्रवीण का फोन आया, मैंने काट दिया। दूसरी बार, तीसरी बार घंटी बजी लेकिन मैंने फोन काट दिया। फिर मनोज भाई का फोन आया। वो फोन भी मैं नहीं उठा सका। बुलेटिन खत्म हुआ, तो संतोष का फोन आया कि विनय नहीं रहा। विनय हम सबको छोड़ कर चला गया। विनय तुम्हारी मौत की खबर भी इस न्यूज बुलेटिन ने मुझ तक पहुंचाने में आधे घंटे की देर कर दी। सुबह पता चला कि तुम भी ऑफिस पहुंचने की आपाधापी में ही…


पुष्य ने बताया कि ऑफिस में देर हो रही थी और शायद तुम्हारी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। पटना से तुम भागलपुर के लिए चले थे लेकिन नाथनगर में पता नहीं तुमने चलती ट्रेन से उतरने की कोशिश की या फिर कुछ और… लेकिन तुम ऑफिस नहीं पहुंच पाये। अब कभी नहीं पहुंच पाओगे। ऑफिस से लौटते हुए जो बात मुझे बहुत ज्यादा कचोट रही थी कि मैंने फोन क्यों नहीं उठाया – यह बात कुछ ज्यादा ही तकलीफ दे रही है। पता नहीं किस हालात और किन दबावों में हम काम करते हैं कि… खैर! ये वक्त इस बात का नहीं लेकिन पुष्य समेत अपने तमाम साथियों के जेहन में न जाने ऐसे ही कई सवाल उठ रहे हैं।

मेट्रो से घर पहुंचने तक कई मित्रों के फोन आये। किसी के पास कहने को कुछ नहीं था। सब एक दूसरे से एक-दो लाइनों में बात करते और फिर शब्द गुम हो जाते। अखिलेश्वर का मेरठ से फोन आया – भैया विनय नहीं… उसके बाद न वो कुछ बोल सका और न मैं। इसी तरह ब्रजेंद्र, उमेश… सभी इस खबर के बाद अजीब सी मन:स्थिति में थे। शिरीष से बात की और ये सूचना दी तो वो भी सन्न रह गया। विनय अब तुमसे तो कोई सवाल नहीं कर सकता लेकिन एक दूसरे से ताकत बटोरने की कोशिश कर रहे हैं। विनय ऐसी भी क्या जल्दी थी? एक दिन ऑफिस छूट ही जाता तो क्या होता? लेकिन हादसों के बारे में क्या कहा जा सकता है? तुमने भी तो शायद ये नहीं सोचा था कि चलती ट्रेन के पहिये तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं…

तुम्हारा चेहरा रात से बार-बार मेरे सामने घूम रहा है। सीधा, सपाट और बिल्‍कुल बेबाक विनय और उसकी उतनी ही प्यारी मुस्कुराहट अब कभी देखने को नहीं मिलेगी। वो विनय जो चंद मुलाकातों में ही बिलकुल अपना सा हो गया था, वो पता नहीं कहां गुम हो गया? बंदर मस्त कलंदर का गोडसे उड़न छू हो गया। विनय वो तुम ही तो थे जो बैक स्टेज पर हंसते मुस्कुराते और मंच पर जाते ही गोडसे के चरित्र में ढ़ल जाते थे। तुम्हीं ने राजकमल नायक के साथ एक अलग ही परसाई की कहानी के कैरेक्टर में कमाल की जान डाल दी थी। आज बेजान पड़े हो। बिना किसी रिहर्सल के जिंदगी के नाटक का पटाक्षेप कर दिया।

कई सारी बातें ध्यान में आ रही हैं। बिलकुल बेतरतीब। तुम्हारा भोपाल का कमरा, जहां तुमने मुझे खिचड़ी का न्योता दिया। हबीबगंज स्टेशन पर ट्रेन सीटी बजा रही थी लेकिन तुम्हारे कुकर की सीटी नहीं बज रही थी। बिना खिचड़ी खाये जाना मुमकिन नहीं था। जब तक हम स्टेशन की ओर बढ़ते तब तक ट्रेन जा चुकी थी। तुमने बड़े प्यार से कह दिया – ठीक है एक दिन और रुक जाइए… मेरा मन भी नहीं था कि आप जाएं…

ऐसी ही चंद मुलाकातें बार-बार जेहन में कौंध रही है… तुम्हारी प्रवीण के साथ नोक-झोंक, भागलपुर स्टेशन पर पुष्य के साथ खबरों को लेकर खींचतान…. भागलपुर का वो कमरा जो तुमने तीसरी या चौथी मंजिल पर ले रखा था… जिसका पूरा व्याकरण तुमने अपने मुताबिक गढ़ रखा था। विनय तुम सबसे जुदा थे। सबसे अलग। तुम्हारा स्नेह, तुम्हारा प्यार, तुम्हारी बहस और तुम्हारे सवाल सब तुम्हारे साथ ही गायब हो रहे हैं। कैसे कहूं – हो सके तो लौट आओ मेरे भाई… तुम्हारे हाथ की खिचड़ी खाने का फिर से मन हो रहा है… क्या तुम मौत की ट्रेन मेरे लिए मिस नहीं कर सकते।

20.6.10

खेतों में काम करना बाल मजदूरी क्यों नहीं ?

शिरीष खरे


बाल अधिकारों से जुड़ी लगभग सभी संधियों पर दस्तखत करने के बावजूद भारत बाल मजदूरों का सबसे बड़ा घर क्यों बन चुका है, और इसी से जुड़ा यह सवाल भी सोचने लायक है कि बाल श्रम निषेध एवं नियंत्रण कानून, 1986 के बावजूद हर बार जनगणना में बाल मजदूरों की तादाद पहले से कहीं बहुत ज्यादा क्यों निकल आया करती है ?

मगर हकीकत इससे कहीं भयानक है। दरअसल बाल मजदूरी में फसे केवल 15% बच्चे ही कानून के सुरक्षा घेरे में हैं। जबकि देश के 1.7 करोड़ बाल मजदूरों में से 70% बच्चे खेती के कामों से जुड़े हैं, जो कानून के सुरक्षा घेरे से बाहर ही रहते हैं। इसलिए जब तक खेती से जुड़े कामों को भी बाल मजदूरी मानकर उन पर प्रतिबंध नहीं लगाया जाएगा, तब तक बाल मजदूरी को जड़ सहित उखाड़ फेंकना संभव नहीं हो पाएगा।

आजादी से 39 साल बाद और अबसे 24 साल पहले, बाल श्रम निषेध एवं नियंत्रण कानून, 1986 के जरिए भारतीय बच्चों को खतरनाक कामों से बाहर निकालने के लिए वैधानिक कार्रवाई शुरू हुई थी। इसके बाद, 2006 को इसी कानून में बाल मजदूरी के कई क्षेत्रों और घरेलू कामों को प्रतिबंधित किया गया। कुलमिलाकर, तब 16 व्यवसायों और 65 प्रक्रियाओं को भी खतरनाक कामों की सूची में शामिल किया गया। मगर इस सूची से खेती से जुड़े कई खतरनाक काम छूट ही गए।

खेत-खलिहानों में काम करने या पशुओं को चराने वाले बच्चों के पास अगर पढ़ने लायक समय भी नहीं बचेगा, तो जाहिर है उनके आने वाले समय को अंधकार ले डूबेगा। खासतौर से लड़कियों के साथ तो मुसीबतें ज्यादा हैं, क्योंकि उन्हें खेती के कामों के साथ-साथ घर और छोटे बच्चों को भी संभालना पड़ता है। इन बच्चों की हालत भी बाकी क्षेत्रों के बाल मजदूरों जैसी ही है। इसके बावजूद इन्हें बाल मजदूर क्यों नहीं कहा जा सकता है ?

हालांकि यह एक अजीब स्थिति है, मगर कहीं न कहीं एक सच भी है कि खेती के क्षेत्र में बाल मजदूरों की भारी संख्या के चलते ही इन्हें बाल मजदूर कहने या मानने में परहेज किया जा रहा है। बाल मजदूरों की इतनी भारी संख्या का दबाव कहीं न कहीं कानून और नीति बनाने वाले के ऊपर भी रहता है। यह एक असमंजस से भरा सवाल बना हुआ है कि ‘‘अगर बच्चों ने खेतों में काम करना बंद कर दिया तो फिर क्या होगा ?’’

यह भी एक कड़वा सच है कि परिवार वालों के पास उपयुक्त रोजगार का जरिया और पर्याप्त आमदनी नहीं होने के चलते वह अपने बच्चों को काम पर भेजते हैं। एक तबके के मुताबिक इसमें हर्ज भी नहीं है। मगर इसके आगे यह भी गौर करना जरूरी होगा कि अगर बाजारों में हमेशा से बच्चों की मांग बनी भी रहती है तो इसलिए कि उनकी मजदूरी बहुत अधिक सस्ती होती है। जबकि गरीब और बंधुआ परिवार वाले तो बाजारों की मांग के आगे हमेशा से झुके रहे हैं। यह परिवार वाले अपने बच्चों को दूर इलाकों में अच्छा पैसा दिलवाने की उम्मीद पर जिन ठेकेदारों के हाथों ‘‘बेचते’’ हैं, वह उन्हें शोषण के रास्ते पर ही धकेल रहे हैं।

कुछ महीने पहले राजस्थान के श्रम विभाग ने केन्द्र सरकार के श्रम मंत्रालय को बाकायदा एक पत्र लिखकर यह सिफारिश की थी कि बाल मजदूरी पर कारगर तरीके से पाबंदी लगाने के लिए श्रम निषेध एवं नियंत्रण कानून में खेती से जुड़े कार्यों को भी जोड़ा जाए। असल में राजस्थान से बहुत सारे बाल मजदूर गुजरात की तरफ पलायन करते हैं। मगर श्रम निषेध एवं नियंत्रण कानून में खेती से जुड़े कार्यों को शामिल नहीं किए जाने के चलते प्रदेश का श्रम विभाग यह मान रहा है कि जहां बाल मजदूरी को बढ़ावा देने वाली प्रवृतियों को कानूनी आड़ मिल रही है, वहीं वह कोई कार्रवाई नहीं कर सकता है। बीते साल केवल अगस्त महीने का हाल यह रहा कि उत्तरी गुजरात में कपास की खेती से जुड़े एक दर्जन से भी ज्यादा बाल मजदूर मारे गए। तब इन हादसों के पीछे बीटी कपास में जंतुनाशक दवा के रियेक्शन की आशंका जतलायी गई थी।

आमतौर पर यह भी कहने सुनने में आता है कि अगर काम खतरनाक नहीं है तो बच्चों से काम करवाने में कोई हर्ज नहीं है, जैसे कि खेती। मगर बच्चों के मामले में कौन-सा काम खतरनाक है या नहीं है, यह तो उन बच्चों को देने वाले काम पर ही निर्भर करता है। हमें यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि खेती से जुड़े काम मुश्किलों से भरे होते ही नहीं हैं। जबकि खेतों में भी तो खतरनाक मशीनों, औजारों, उपकरणों के इस्तेमाल से लेकर भारी-भरकम चीजों को उठाने और लाने-ले जाने तक के काम होते हैं। खेतों में भी तो स्वास्थ्य के लिए प्रतिकूल माहौल में काम करना होता है, जिसमें खतरनाक पदार्थों के मामले, दलाल या मालिकों के काम करने का तरीके, मौसम या तापमान और हिंसा के स्तर भी शामिल हैं। खेती में भी तो जटिल परिस्थितियों में काम के लिए रातदिनों और घंटों का समय तय नहीं होता है। एक बच्चे को खेत में एक दिन के कम-से-कम 10 से घंटे तो बिताने ही पड़ते हैं। फसल बुहाई और कटाई के मौसम में तो काम का कोई हिसाब-किताब भी नहीं रहता है।

बीड़ जिले की रूपल माने (13 साल) बताती है कि उसे सुबह 9 से शाम के 7 बजे तक खेतों में ही काम करना पड़ता है। इसी तरह, लातूर जिले के सुभाष तौर (14 साल) कहता है कि वह 12-13 घंटे खेतों में रहता है, और कई-कई हफ्तों तक ढंग से आराम नहीं कर पाता है। यहां तक कि महीनों-महीनों तक घर लौटने की इजाजत भी नहीं मिलती है। गौर करने वाला तथ्य यह भी है कि देशभर में 5 से 14 साल तक के 42% बच्चे इसी तरह के कामों में लगे हुए हैं। जब तक इस मामले में किसी नतीजे तक नहीं पहुंचा जाता है, तब तक ऐसे बच्चों से इसी तरह के काम करवाने वालों को खुली छूट मिलती रहेगी।

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14.6.10

कमाठीपुरा की गलियों से

शिरीष खरे, मुंबई से


यह शहर के उठने का वक़्त है. बोरीबली से मुंबई सेंट्रल आने वाली लोकल के ठहरने के बीच का यह वक़्त, हजारों लोगों के दौड़ने का भी वक़्त है. मुंबई सेंट्रल से यात्रियों को अपने में समाए बेस्ट यानी ‘बॉम्बे एलेक्ट्रिक सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट’ की लालधारी बसों ने भी चौतरफ़ा दौड़ना शुरू कर दिया है. मुझे भी यहाँ से पैदल अब 15-20 मिनट ही चलना है, सिटी सेंटर से होते हुए सीधे कमाठीपुरा की गलियों की तरफ़.




अटपटे-से एहसासों से जुड़े कुछ सवाल लिए हुए बढ़ रहा हूँ. क्या आप जानते हैं कि रेडलाईट की यह गलियाँ सारी रात जागी हैं और ग्राहकों के इंतजार में अभी भी सोई नहीं हैं ?


यहाँ की गलियों ने यहाँ को बनते हुए देखा है. अंग्रेजों ने अपने सैनिकों के लिए यहाँ कभी ‘कम्फर्ट जोन’ बनवाया था और विदेशों से बड़ी तादाद में यौनकर्मियों को बुलवाया था. 1928 में यौनकर्मियों को लाइसेंस जारी किए थे. मगर 1950 में सरकार ने यौन व्यापार को प्रतिबंधित कर दिया था. इसके बावज़ूद यह इलाक़ा आज भारतीय यौनकर्मियों का बहुत बड़ा घर कहलाता है. यहाँ 200 से ज्य़ादा पिंज़रानुमा कोठरियों में 5000 से भी ज्यादा यौनकर्मियों का रहवास है.

आंध्रप्रदेश के कमाठी मजदूरों के नाम पर यह इलाक़ा कमाठीपुरा कहलाता है. एक ज़माने में गुजरात के वाघरी लोगों की भी यहाँ खासी तादाद थी. मगर अब तो बँगाल, नेपाल, कर्नाटक, तमिलनाडू, उड़ीसा, असम से आए लोग भी ख़ूब मिल जाया करते हैं.

कमाठीपुरा का यह पूरा इलाक़ा मौटे तौर से 16 गलियों में बटा है, 9 गलियों में सेक्स का कारोबार चलता है, ब़ाकी 5 गलियां रेसीडेंटल और बिज़नेस के लिए हैं. यह गलियाँ आगे जाकर नार्थबुक गार्डन, बैलेसिस रोड़, फाकलेंड रोड़ से जुड़कर अपनी पहचान ख़ोने लगती हैं.

बहरहाल, यहाँ की गलियों में भारी भीड़ के बीच से पैदल चलते हुए आदमी कुछ ज्य़ादा ही ठहर रहे हैं, वह चलते-चलते टकरा भी जाते हैं. हो सकता है कि मेरी तरह आपका दिल भी यहाँ धकधक की आवाज़ पर काबू पाने के चक्कर में बैठता जाए, और ज़ुबान अपनेआप सिलती जाए, दर्ज़नो आँखें उम्मीद लिए आपके ऊपर भी अटक जाएं, और मेरी तरह आपका बदन भी पीला पड़ता जाए.


कतरा-कतरा ज़िंदगी
मौसम तो ख़ुशनुमा है, मगर ख़ुली नालियों से आने वाली बदबू चारों ओर फैली रहती है. एक गली से दूसरी और तीसरी से चौथी में मुड़ता हूँ, मगर पूरा इलाक़ा इतना तंग और फ़ैला हुआ है कि दो-चार बार घूमने के बाद भी यह शायद ही समझ में आए.

इन्हीं गलियों में यौनकर्मियों की अनगिनत और अंतहीन कहानियाँ हैं. यहाँ से यौनव्यापार मौटे तौर पर चार तरीकों से चलते हुए देख रहा हूँ- एक तो अपने को सीधे बेचने वाली औरतों से, दूसरा पिंज़रानुमा कोठरियों की मालकिनों यानी घरवालियों से, तीसरा पिंज़रानुमा कोठरियों में कैद लड़कियों से और चौथा दारू के अड्डों से.

यह एक भरा पूरा बाज़ार है- नीचे दुकानें और ऊपर औरतें खड़ी हैं. शहर की ब़ाकी लड़कियां जब प्यार का खु़शनुमा एहसास लिए सोती-जागती हैं, यहाँ की लडकियाँ अपने को किसी के साथ भी किराए पर खुल्ला छोड़ देती हैं. शहर की ब़ाकी औरतों के लिए सुबह, शाम, रात होने के अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं, मगर यहाँ की औरतों के लिए सुबह, शाम, रात का एक ही अर्थ है- ग्राहकों को पकड़ना और उनसे पैसा कमाना. यह अपने ऊपर बेहिस़ाब पाऊडर, लिपिस्टिक, काजल, पर्स, सेंडल, जूड़े, सस्ती जेव्लरी क्या-क्या नहीं लादे हैं. इनके जींस, टीशर्ट, फ़िराक, सलवार-शूट, ब्लाउस, स्कर्ट, साड़ी में हर आकार और प्रकार के कट लगे हुए हैं. ऐसे में एक ग्राहक का काम यहाँ से वह माल छांटना है, जिसे तोड़मरोड़ कर अपने को हल्का कर सके, और कुछ और रातों तक आराम से सो तो सके.

आप यहाँ से देखिए- यह औरतें रंग-ढ़ंग और चाल-ढ़ाल से अपने ग्राहक को किस तरह से पहचान लेती है. दूसरी तरफ, आपको यहाँ आने वालों से भी यह पता लग सकता हैं कि यहाँ कौन-सी गलियाँ कितनी सही हैं, और क्यों हैं, उनमें कौन सी ज़मात वालों का असर ज्य़ादा है, उनका हिसाब-किताब क्या है, उनका धंधापानी कैसा है, कभी-कभार क्या-क्या लफड़ा हो सकता है, और उनसे कैसे-कैसे निपटा जा सकता है, वगैरह-वगैरह.

आप यहाँ से देखिए- एक जगह पर खड़ी होने के बावजूद यह पिंज़रानुमा कोठरी की दुनिया लोकल ट्रेन जैसी नहीं दिखती है, जो कुछ यात्रियों को उतारती है, और नए यात्रियों को चढ़ाकर एक मशीन सी चलती रहती है.

हां भाई सुनिए... एकदम नया आया है.. गलत नहीं ले जाऊंगा चलिए... नेपाली, बंगाली, साऊथ इंडियन सब हैं... पहले देख लीजिए... 12 से 16 का है... गोरा है देखने में क्या जाता है... इधर तो धंधा चलता है... उधर भी सस्ता ही है...

पिंज़रानुमा कोठरी के सामने खड़े हुए नहीं कि एक-एक करके बहुत सारे दलाल आपको घेरने लगते हैं. यहाँ तक कि फ़ोन नम्बर वाली पर्चियां भी देने लगते हैं. इनसे बगैर उलझे आगे बढ़ना ठीक है. वैसे इनकी भी अपनी कहानियाँ हैं. मगर अभी आगे बढ़ना ठीक है.

खै़र पिंज़रानुमा कोठरी के भीतर जैसे ही जाएंगे, वैसे ही आप दूसरी दुनिया में घुस जाएंगे. यहाँ लकड़ी की सीढ़ियों से लगे कुछ कोने, कोनों से दरवाजे, दरवाजों से ताबूतनुमा कमरे और कमरों के अंधियारे से बहुत सारी औरतें दिखाई देती हैं. यहाँ तक़रीबन 25 से 30 औरतों के साथ उनकी एक घरवाली भी दिखेगी. यहाँ औरतों की तादाद और उनकी उम्र से किसी घरवाली की सत्ता और उसकी संपत्ति का पता चलता है. यहाँ तक़रीबन आधी तो 22 साल से ज्य़ादा की नहीं हैं. यहाँ का बड़ा सीधा हिसाब है- 12 से 22 साल तक को ऊँचे दामों पर बेचो, और 30 से 35 साल के बाद घरवाली बन जाओ.


अब मेरी तरह आपको भी यहाँ किसी से सीधे-सीधे यह पूछना मुश्किल हो सकता है कि- "आप यहाँ तक कैसे पहुंचीं"... "वो कौन था जिसने आपसे पहली बार कहा कि पैसे कमाने का यह भी एक तरीका हो सकता है", इसलिए मेरी तरह आप भी यहाँ पहुँचकर हो सकता है कि- ‘आपका नाम...’ ‘आप कैसे हो’ से आगे न बढ़ पाएं.


मगर दिन के उजाले में एक इज्ज़तदार कहलवाने वाला आदमी जहाँ आने से कतराता है, वहाँ से मुझे लगता है कि सुबह से शाम तक का वक़्त ज़रूर बिताया जाए. यहाँ की कुछ सच्चाईयों से दो-चार हो जाया जाए और कोई नैतिक बहस छेड़े बगैर अपना ताज़ातरीन तजुर्बा बांट लिया जाए.


बड़ी बहन, छोटी बहन और...
‘याद आ रही है, तेरी याद आ रही है...’- ‘‘सुबह-सुबह पता नहीं क्यों आ रही है’’ कहते हुए जूही ने रेडियो बंद कर दिया है. आज के दिन पता नहीं कितनों दिनों के बाद वह पूरी नींद सो जाना चाहती है. दिन को जागना उसे कभी भी अच्छा नहीं लगा है. मगर उससे तो हरदम चुस्त रहने की उम्मीद की जाती है. इस उम्मीद के बगैर भी दुनिया चल सकेगी- वह सोच भी नहीं सकती है. शहर के बहुत से ठिकाने बदलने के बाद ही तो वह यहाँ तक आई है, और अब यही की होकर रह गई है.

यहाँ उम्र के पच्चीसवें साल में भी उसने अपने सीधेपन को संभाले रखा है. उसकी सुने तो उसमें अब पहले जैसी बात नहीं है. बचपना तो बहुत पहले ही ख़त्म हो चुका था, जवानी भी ख़त्म होने ही वाली है. असल में जूही की बड़ी बहन चंपा की शादी होने वाली है, इसलिए वह यहाँ हैं. इससे पहले चंपा भी यहाँ बैठ चुकी है. जुही कहती है कि उसके घर में अब कोई फूल (छोटी बहन) नहीं बचा है, इसलिए उसकी शादी के लिए यहाँ कौन बैठने वाली है, पता नहीं है. मगर ऐसा उसने मज़ाक में कहा है या वाकई संज़ीदगी से, यह भी तो पता नहीं चलता है.

वैसे भी उसके हिस्से में दिन और रात का अंतर नहीं बचा है. मौसम के मिजाज़, छुट्टी वाले दिनों या चौपाटी जाने जैसे ख़्यालों से भी जूही का कोई लेना-देना नहीं है. ग्राहक कितना सही है-यह भी उसे नहीं जानना है. शहर के नक़्शे की बजाय उसकी दुनिया के तार तो घनी बस्ती से भी सघन उस नेटवर्क से जुड़े हुए हैं जिसमें हजार रूपए का ग्राहक ढ़ूढ़ लेना सबसे बड़ी बात मान ली जाती है.


मां की तलाश में गोमती
इधर से सबसे आख़िरी के कमरे तक अगर नज़र पहुँचे तो कोई भी यह पूछ सकता है कि उधर रौशनी क्यों नहीं है- यह बात गोमती से अच्छा भला कौन जान सकता है, जिसे 8 साल की उम्र में यहां कैद किया गया था. दरअसल, नेपाल के काठमांडू की गोमती की मम्मी बचपन में मर चुकी थी. इसलिए वह अक्सर स्कूल के बाहर ही बैठी रहती थी. इतनी नाज़ुक उम्र में उसे क्या पता था कि स्कूल या मेले की ऐसी अकेली और गुमसुम बच्चियों पर दलालों की नज़र रहती है.

एक दलाल भी गोमती को कई दिनों से बतियाता और उसे बहलाता-फुसलाता था. उसने यह भी कहा था कि वह उसकी मम्मी को भी जानता है, और अगर वह किसी को कुछ न बताए तो एक दिन मिला भी सकता है. मगर एक दिन उसने गोमती को खाने में ऐसा कुछ दिया कि वह नेपाल से मुंबई तक होश में नहीं आई. यहाँ उसे घरवाली के हाथों बेच दिया गया. घरवाली ने उसे बहुत प्यार-दुलार दिया. उसने कहा मम्मी तुझे मेरे लिए ही तो छोड़ गई है, एक दिन आएगी. मगर गोमती की मम्मी है कि आज तक नहीं आई है.


गोमती बता रही है कि ऐसी लड़कियों को सालों तक कैद करके रखा जाता है. फिर कुछ सालों बाद उसकी बोली लगायी जाती है. अगर लड़की न माने तो उसे कई दिनों तक भूखा और नंगा रखा जाता है, मारा, पीटा और तड़पाया जाता है. मगर जैसे ही लड़की एक बार तैयार हो जाती है तो उसे हाथों हाथ लिया जाता है. जब तक वह कुछ जानती-समझती नहीं है, तब तक तो उससे होने वाली कमाई केवल घरवाली के हाथों में जाती है, मगर जैसे-जैसे लड़की सियानी होती है तो वह खाने, कपड़े, लत्ते के अलावा ग्राहक के पैसे से भी अपना हिस्सा मांगने लगती है.


हर एक बाज़ार में नई और आर्कषक चीज़ों की माँग हमेशा बनी रहती है. सेक्स का बाज़ार भी इसी सिद्धांत पर चलता है, यहाँ भी तो ज्य़ादातर ग्राहकों को कमसिन देह ही चाहिए. इसलिए यहाँ बच्चियों के देह व्यापार में हमेशा तेजी बनी रहती है. मगर बच्चियां भी कोई दिमागी तैयारी के साथ तो देह व्यापार में उतरती नहीं हैं, जो पहले से ही उन्हें सेक्स से जुड़ी जानकारियों का ज्ञान हो. इसलिए उनमें सेक्स से जुड़ी गंभीर बीमारियों की आशंकाए बढ़ जाती हैं. लिहाजा, न जाने कितनी गोमतियां एड्स नामक हालात की गिरफ़्त में आ जाती हैं.



बची रहना बिटिया
वैसे दुर्गा जैसी कई औरतें अपनी बच्चियों को ऐसे धंधे से दूर ही रखना चाहती हैं. इसके लिए वह यहाँ से दूर भिमंडी या मीरा रोड़ जैसी जगहों में रहती हैं. दुर्गा बता रही है कि बहुत कम माँएं अपनी बच्चियों को पढ़ा पा रही हैं. एक तो उनकी आधी से ज्यादा कमाई घरवाली, दलाल, डॉक्टर और साहूकार खा जाते हैं. दूसरा यह भी कि जैसे ही वह 30 की होती हैं, तो अक्सर कई तरह की बीमारियों से घिर जाती हैं, उनके सिर पर जब तक बहुत सारा क़र्ज़ भी चढ़ चुका होता है, और जब तक उनकी बच्चियां भी 12-13 साल की हो जाती हैं, जो कभी अपनी माँओं की बीमारियों, तो कभी उनके कर्जों को उतारने के लिए उन्हीं के नक़्शे-कदमों पर चल रही होती हैं.

वैसे बच्चियां जो देखती हैं, वही करती हैं. वह बचपन से मां के जैसा मेक़अप और व्यवहार देख-देखकर उनसे काफ़ी कुछ सीखा करती हैं. इस तरह उनमें आने वाली आदतें ताज़िंदगी आसानी से नहीं जाती हैं. दूसरी तरफ, कुछ बच्चियों को अपनी माँओं का ग्राहकों के साथ जाना अच्छा नहीं लगता है. कई तो पढ़ने में भी तेज होती हैं, मगर उन्हें सही रास्ता कोई नहीं बताता है, और अगर बताए भी तो घर से उतना सहयोग भी नहीं मिलता है. अक्सर घरवाली और दलाल भी उनसे उल्टी-सीधी बातें करके हतोत्साहित किया करते हैं. इसके अलावा, माँओं के ग्राहक भी उनका यौन-शोषण करना चाहते हैं.

अपनी बच्चियों को बचाने के लिए कुछ माँएं उन्हें अपने रिश्तेदारों के पास भेज देती हैं. कुछ माँएं 14-15 साल की उम्र में शादियाँ करा देती हैं. जबकि कुछ माँएं एनजीओ के पुनर्वास केन्द्रों में भेज देती हैं. मगर अपनी बच्चियों को पुनर्वास केन्द्रों तक भेजने वाली माँओं को यह डर भी रहता है कि अगर उनकी बच्ची सब जानने-समझने के बाद उनके पास नहीं आयी तो ? इसलिए यह माँएं बीच-बीच में अपनी बच्चियों को पुनर्वास केन्द्रों से बुलाती रहती हैं.


पुनर्वास के बजाय फिर धंधे में
कई पुनर्वास केन्द्रों की एक दिक्कत यह भी है कि उनमें केवल 7 से 12 साल तक के बच्चों को ही रखा जाता है. जया नाम की लड़की जैसे ही 13 की हुई, वैसे ही एक एनजीओ ने उसे यह कहकर अपने पुनर्वास केन्द्र से निकाल दिया कि तुम्हारी उम्र की लड़कियों को रखने की कोई व्यवस्था नहीं है. जया को उस समय पुनर्वास केन्द्र की सबसे ज्यादा ज़रुरत थी, क्योंकि उसकी मां का अपना कोई घर नहीं था और न ही वह उसे कहीं भेज सकती थी. इसलिए जया अपनी माँ के साथ रहने लगी और धीरे-धीरे उसी के धंधे में हाथ बटाने लगी. आज जया को एनजीओ वालों से नफ़रत हैं, वह एनजीओ के बारे में कहती है- "उनका काम तो सब ओर अपना काम दिखाना भर है, कोण्डम या गोली-दवाई देने के अलावा उनका कोई काम नहीं हैं."

यौनकर्मी बनने की बहुत सारी कहानियाँ पारिवारिक हिंसा-दुत्कार, अपराध, बलात्कार और ख़रीद-फ़रोख्त से भी जुड़ी हैं. मगर बाज़ार की फ़ितरत के हिसाब से यहाँ भी शोषण के लिए ज्य़ादातर उन लड़कियों को चुन लिया जाता है, जो पिछड़े और गरीब तबक़े से आती हैं. उनकी मज़बूरियों के ख़िलाफ उनके सारे सपने बहुत सस्ते और थोक में जो ख़रीद लिए जाते हैं.

भारत में यौनव्यापार को रोकने के लिए ‘भारतीय दण्ड विधान, 1860’ से लेकर ‘वेश्यावृत्ति उन्मूलन विधेयक, 1956’ बनाये गए हैं. इनदिनों कानून में बदलाव की चर्चाएं भी ज़ोरों पर चल रही हैं. मगर इस स्थिति की जड़ें तो बेकारी और पलायन से जुड़ी हुई हैं. इन उलझनों के आपसी जुड़ाव को अनदेखा किया जा रहा है. असलियत यह है कि यहाँ की औरतें घर पर बहुत सारा पैसा भेजने की बजाय दो टाइम की रोटी के लिए जूझ रही हैं. इसलिए नीतियों में इनके जीवन-स्तर को उठाने की बजाय इन्हें जीने के मौके देने वाले नियमों की बात हो तो बात बने भी.

कमाठीपुरा की गलियों से गुज़रते हुए आप कुछ और पिंज़रानुमा कोठरियों में भी घुस सकते हैं, कुछ और चरित्रों से भी बतिया सकते हैं. यहाँ के इन भागों को उनकी संपूर्णता में भी देख सकते हैं. दृश्यों को केवल दृश्य भर न मानकर, उनका विश्लेषण भी कर सकते हैं. बहुत सारे बिन्दुओं के मेलजोल से, एक कहानी को उपन्यास में भी बदल सकते हैं. मगर मेरे भीतर से कागज के फ़ूल, पाक़ीजा, उमराव ज़ान जैसी ओल्ड और गोल्ड फ़िल्मों की हिरोइनें हवा हो चुकी हैं... मेरे सामने केवल मंटो की काली सलवारें लटकी हैं.

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