शिरीष खरे
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मुंबई के फुटपाथों पर न जाने कितनी बार लालबत्ती हरीबत्ती में बदलती है और हरीबत्ती लालबत्ती में. पर इनके नीचे खड़ी लाखों औरतों को आज भी अपनी जिंदगी में एक हरीबत्ती का इंतजार हैं
‘मुझ जैसी कईयों को अपना शरीर बार-बार बेचना पड़ता है.’ एक औरत की मुंह से पहली बार ऐसा सुन कोई भी झिझक सकता है. सपना ने बेझिझक आगे कहा, ‘पेट की खातिर करना पड़ता है. इज्जत के मारे घर बैठ सकती हूं लेकिन...’ उसके बाद वह चुपचाप एक गली में गई और ओझल हो गई.
देश के कोने-कोने से हजारों मजदूर सपनों के शहर मुंबई आते हैं. इनमें से अधिकतर असंगठित क्षेत्र से हैं. यह शहर के उठने का वक्त है. मुंबई सेंट्रल से बोरीबली आने वाली लोकल के ठहरने के बीच का यह वक्त हजारों लोगों के दौड़ने का भी वक्त है. ठीक इसी वक्त नाकों पर मजदूर औरतें भी खासी संख्या में दिखाई देती हैं. इनमें से कइयों को काम नहीं मिलता और इसलिए कइयों को ‘सपना’ बन जाना पड़ता है. तो क्या पलायन के रास्ते ये बेकारी से होते हुए सीधे देह-व्यापार को जा रही हैं?
मुंबई के उत्तरी तरफ, बोरावली में संजय गांधी नेशनल पार्क के पास दिहाड़ी मजदूरों की एक बस्ती है. यहां पीने के पानी के बाद अब रोजीरोटी के लिए दिन कि शुरुआत एक लंबी लाइन के साथ शुरु हो चुकी है. बुनियादी योजनाओं यहां से होकर नहीं गुजरतीं. इन्होंने अपने हाथों से कई आकाश चूमती इमारतें बनायी हैं. खास तौर से नवी मुंबई को बनाने में कम अवधि के ठेकों पर अंगूठे लगाए हैं. इन्होंने ही कई गिरती इमारतों को दुबारा खड़ा भी किया है. यहां आमतौर पर औरत को 120 और मर्द को 180 रूपये दिन के हिसाब से मजदूरी मिलती है. ठेकेदार और मजदूरों के आपसी रिश्तों से भी मजदूरी तय होती है. एक मजदूर का 3,500 रूपये महीने से कम में गुजारा नहीं होता. मतलब एक दिन के लिए सौ रूपये चाहिए ही चाहिए. इतनी आमदनी पाने के लिए परिवार की औरत भी मजदूरी को जाती है. उसे महीने में कम से कम पंद्रह दिन काम चाहिए. मगर उसे हर दिन काम मिले ही तो यह जरुरी नहीं. कुल मिलाकर, एक औरत के लिए 1,800 रुपए महीना कमाना भी मुश्किल हो जाता है.
यह मलाड नाके का दृश्य है. सड़क किनारे और मेडिकल स्टोर के ठीक सामने मजदूरों के दर्जनों समूह हैं. यहां औरत-मर्द एक-दूसरे के आजू-बाजू बैठे बतियाते हैं. यह काम पाने की सूचनाओं का अहम अड्डा है. यहां सुबह ग्यारह बजे तक भीड़ रहती है. और उसके बाद जिन्हें काम मिलता है वे काम पर जाते हैं और जिन्हें काम नहीं मिलता वे घर लौट आते हैं. पर सेवंती खाली नहीं लौट सकती. इसलिए उसकी सुबह देर रात में बदल जाती है. और उसे नाके से लगी गलियों में पहुंचकर देह के ग्राहक ढूंढने पड़ते हैं.
रविवार होने के बावजूद उसे तीन घंटे से कोई ग्राहक नहीं मिला. इस व्यापार में दलाल कुल कमाई का बड़ा हिस्सा निगल जाता है इसलिए सेवंती दलाल की मदद नहीं लेना चाहती. सेवंती जैसी दूसरी औरतों को भी ग्राहक के एक इशारे का इंतजार है. इनकी उम्र चौदह से पैंतीस है. यह अस्सी से 150 रुपये में सौदा पक्का कर सकती हैं. अगले 24 घंटों में चार ग्राहक भी मिल गये तो बहुत हैं. ये अपने ग्राहकों से दोहरे अर्थो वाली भाषा में बात करती हैं. ऐसा शायद पुलिस और रहवासियों से बचने के लिए कर रही हैं. ये अपने असली नाम भी नहीं बतातीं. जाहिर है इन्हें यहां सुरक्षा का एहसास नहीं है. शारारिक और मानसिक यातनाओं का डर सता रहा है. यहां से किसी को गर्भवती तो किसी को गंभीर बीमारी के शिकार बनने का डर भी सता रहा है.
देह कारोबार से जुड़ी तारा बताती है कि इस कारोबार में सौ में सत्तर 30 साल से कम की है. इसमें से भी पच्चीस बामुश्किल अठारह की हैं. इनदिनों कम उम्र की लड़कियों की संख्या बढ़ रही है. पैंतीस तक आते-आते औरत की आमदनी कम होने लगती है. एक औरत अपने को बीस साल से ज्यादा नहीं बेच पाती. आधे से अधिक औरतें पैसों की कमी के चलते इन गलियों में आती हैं. पीछे खड़ी कुसुम कहती है कि मुझे तो बच्चे और घर-बार भी संभालना होता है. यहां अधिकतर की अंतहीन कहानियां हैं. मसलन, माधुरी का पिता उसे मजदूरी के लिए भेजता है लेकिन वह मजदूरी के साथ अपने शरीर से भी पैसे कमा लाती है. गिरिजा अपने भाई की बेकारी के दिनों का बरकत है. सुब्बा ने पति के एक्सीडेंट के बाद गृहस्थी का बोझ संभाल लिया है. जोया ने छोटी बहिन की शादी के लिए थोड़ा-थोड़ा पैसा बचाना शुरू कर दिया है. पर अब उसकी बहन पढ़ाई के लिए मुंबई आना चाहती है. जोया अपनी सच्चाई छिपाना चाहती है. उसे अपनी इज्जत के तार-तार होने का आशंका है. नगमा पैंतालीस पार हो चुकी है और अब उसकी चौदह साल की बेटी बड़की कमाती है. बड़की बाल यौन-शोषण का जीता जागता रूप है.
और यहां कदम-कदम पर ‘बड़कियां’ खड़ी हैं. ये चोरी-छिपे इस कारोबार में लगी हैं लिहाजा कुल लड़कियों का असली आकड़ा कोई नहीं जानता. कोई बंगाल से है तो कोई नेपाल से तो कोई महाराष्ट्र से. पर इनके दुख-दुविधाओं में अधिक अंतर नहीं दिखता. इन्होंने अपनी चिंताओं को मेकअप की गहरी परतों से ढंक लिया है. मोनी ने बताया कि इस पेशे से हमारा शरीर जुड़ता है, मन नहीं. हम पैसों के लिए अलग-अलग मर्दों को अपना शरीर बेचते हैं लेकिन कई मर्द ऐसे भी हैं जो जिस्मफरोशी के लिए बार-बार ठिकाने बदलते हैं. अगर हमें गलत समझा जाता है तो उन्हें क्यों नही? मोनी का सवाल देह कारोबार के उन अनछुएं पहलुओं पर शिनाख्त करने की मांग करता है जिन्हें समाज की तरह सरकार ने भी अनदेखा किया हुआ है और जब तब ये उठते भी हैं तो इन्हें नैतिकता, अपराध या स्वास्थ्य के दायरों से बांध दिया जाता है. इस क्षेत्र से जुड़े एक वर्ग का मानना है कि यौनकर्मी बनने की बहुत सारी बातें पारिवारिक हिंसा, दुत्कार, अपराध, बलात्कार और खरीद-फरोख्त से भी जुड़ी होती हैं. मगर बाजार की फितरत के चलते यहां भी शोषण के लिए अधिकतर उन्हीं लड़कियों को चुन लिया जाता है जो पिछड़े और गरीब तबके से आती हैं. उनकी मजबूरियों के विरूद्ध उनके सारे सपने बहुत सस्ते और थोक में जो बिक जाते हैं. जाहिर है देह कारोबार का ताल्लुक गरीबी-बेकारी-पलायन जैसी कडि़यों से है. मगर इन कडि़यों के आपसी गठजोड़ की ओर ध्यान नहीं जाता.
भारत में देह कारोबार की रोकथाम के लिए ‘भारतीय दंडविधान, 1860’ से लेकर ‘वेश्यावृत्ति उन्मूलन विधेयक, 1956’ बनाये गये. फिलहाल कानून के फेरबदल पर भी विचार चल रहा है. मगर इस स्थिति की जड़ें तो समाज की भीतरी परतों में छिपी हैं. मुंबई से सांसद प्रिय दत्त के मुताबिक, 'इनकी जिंदगी में फेरबदल तो गरीबी, बेकारी या पलायन में से किसी एक समस्या को हल करने से होगा. इस व्यापार से जुड़ी औरतें दो वक्त की रोटी के लिए लड़ रही हैं. इसलिए ऐसी नीतियां हों जिनमें इन औरतों के जीवन-स्तर को उठाने की बजाय इन्हें जीने के सही मौके दिये जाने को वरीयता दी जाए.'
देखा जाए तो सरकार ने पलायन रोकने के लिए मनरेगा चलाई है जिसके तहत देश के दो सौ जिलों में साल में सौ दिनों के लिए 'हर हाथ को काम और पूरा दाम' का प्रावधान है. मगर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने खुलासा किया है कि यह योजना फ्लॉप साबित हुई है. वहीं 365 दिनों के काम की तलाश में मजदूरों का मुंबई जैसे महानगरों की तरफ पलायन जारी है. दूरदर्शन के कार्यक्रम के बीच ‘रुकावट के लिए खेद’ जैसा संदेश चर्चा का विषय रहा है. मुंबई जैसी महानगरी में कमाठीपुरा जैसी गलियों के भीतर बढ़ते देह के सौदागरों को देखते हुए क्या 'हर हाथ को काम और पूरा दाम' के आगे भी यही संदेश नहीं चिपका देना चाहिए?
पलायन की रफ्तार के बराबर मुंबई का देह कारोबार भी तेजी से फल-फूल रहा है. बात चाहे आजादी के पहले की हो या बाद की. यह किस्सा चाहे कलकत्ता का हो या मुंबई का. मुंबई में सड़क चाहे ग्रांट रोड की हो या मीरा रोड की. चौराहे पर मूर्ति चाहे अंबेडकर की लगी हो या गांधी की. यहां आपको रूकमणी (हिन्दू) भी मिलेगी और रूहाना (मुसलमान) भी. मगर जिन्हें अपने धर्म, क्षेत्र, जुबान या जाति पर नाज है, वे कहीं नहीं दिखते. यहां के लालबत्ती पर रुकी औरतों की जिंदगी बदलाव चाहती है. तस्करी के तारों से जुड़ने के पहले इन्हें एक हरीबत्ती का इंतजार है.
स्टोरी में देह-व्यापार के लिए मजबूर औरतों की पहचान छिपाने के लिए उनके नाम बदल दिये गए हैं.