मेलघाट से लौटकर
मेलघाट सतपुड़ा पर्वतमाला की पश्चिमी पहाड़ी है जो महाराष्ट्र के जिला अमरावती की दो तहसील से जुड़कर बनी है. इस 2 लाख 19 हजार हेक्टेयर यानी मुंबई से 4 गुना बड़ी जगह पर कुल 319 गांव मिलते हैं. यहां करीब 3 लाख आबादी में से 80 फीसदी कोरकू जनजाति है. समुद्र तल से 1118 मीटर की ऊंचाई पर बसा यह हरा-भरा भाग `मेलघाट टाइगर रिजर्व´ कहलाता है. 1974 को `एम टी आर´ के नाम से मशहूर इस प्रोजेक्ट से तब 62 गांव प्रभावित हुए. आज भी 27 गांव के करीब 16 हजार लोगों को विस्थापित किया जा रहा है.
1947 से पूरे देश में विभिन्न परियोजनाओं से अब तक 2 करोड़ से अधिक आदिवासियों को विस्थापित किया जा चुका है. सरकार के मुताबिक बाघों को बचाने के लिए यहां विस्थापन जरूरी है लेकिन `राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण´ की रिपोर्ट स्वीकार करती है कि सत्तर के दशक में शुरू हुआ `प्रोजेक्ट टाइगर´ अपने लक्ष्य से काफी दूर रहा. देश में बाघों की संख्या अब तक के सबसे निचले स्तर तक पहुंच चुकी है. 2002 को देश में जहां 3642 बाघ थे वहीं अब 1411 बाघ बचे हैं. राज्यसभा के सांसद ज्ञानप्रकाश पिलानिया के मुताबिक- ``बाघों की संख्या को बढ़ाने के लिए बने रिजर्व एरिया अब उन्हें मारने की मुनासिब जगह बन गए हैं. इसके लिए अवैध िशकार करके उनके अंगों की तश्करी करने वाले व्यापारी जिम्मेदार हैं. बाहरी ताकतों की मिलीभगत से ही इतने बड़े गिरोह पनप सकते हैं.´ दूसरी तरफ विकास की तेज आंधी ने जंगलों का भविष्य खत्म कर दिया है. `भारतीय वन सर्वेक्षण´ की रिपोर्ट बताती है कि 2003 से 2005 के बीच 728 किलोमीटर जंगल कम हुआ. फिलहाल सघन जंगल का हिस्सा महज 1.6 फीसदी ही बचा है. इसी प्रकार 11 रिजर्व एरिया में जंगल घटा है. जाहिर है कि जनजाति को लगातार विस्थापित किए जाने के बावजूद न तो बाघ बच पाए हैं और न जंगल.
मेलघाट में कोरकू जनजाति का अतीत देखा जाए तो 1860-1900 के बीच प्लेग और हैजा से पहाड़ियां खाली हो गई थी. तब ये लोग मध्यप्रदेश के मोवारगढ़, बेतूल, शाहपुरा भवरा और चिंचोली में जाकर बस गए. उसके एक दशक बाद अंग्रेजों की नजर यहां के जंगल पर पड़ी. उन्हें फर्नीचर की खातिर पेड़ काटवाना और उसके लिए पहुंच मार्ग बनवाना था. इसलिए कोरकू जनजाति को वापिस बुलाया गया. आजादी के 25 सालों तक उनका जीवन जंगल से जुड़ा रहा. उन्होंने जंगल से जीवन जीना सीखा था. लेकिन जैसे-जैसे जंगल से जीवन को अलग-थलग किया जाने लगा वैसे-वैसे उनका जीना दूभर होता चला गया.
अनिल जेम्स कहते हैं कि-`बीते 34 सालों से `मेलघाट टाइगर रिजर्व´ में जनजातियों का शिकार जारी है. जैसे जैसे टाईगर रिजर्व सुरक्षित हो रहा है यहां रोटी का संकट गहराता जा रहा है. जनजातीय पंरपराओं का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो चुका है. यहां सामाजिक ऊथल-पुथल अपने विकराल रुप में हाजिर है. राहत के तौर पर तैयार सरकारी योजनाओं का असर बेअसर ही रहा. हर योजना ने लोगों को कागजों में उलझाए भर रखा और अब लोग भी उलझकर जंगल की मांग ही भूल गए हैं.
बांगलिंगा गांव में 85 साल के झोलेमुक्का धाण्डेकर ने जंगल की बातों के बारे में बताया कि-`पहले हम समूह में रहने के आदी थे. अपनी बस्ती को पंचायत मानते और हर परेशानी को यही सुलझाते. `भवई´ त्यौहार पर साल भर का कामकाज और कायदा बनाते. इन मामलों में औरत भी साथ होती. वह अपना हर फैसला खुद ही लेती. चाहे जिसे दूल्हा चुने और पति से अनबन या उसके मरने पर दूसरी शादी करे. शादी में लेन-देन और बच्ची को मारने जैसी बातें नहीं सुनी थी. संख्या के हिसाब से भी मर्द और औरत बराबर ही बैठते. हमारी बस्ती सागौन, हलदू, साजड़, बेहड़ा, तेंदू, कोसिम, सबय, मोहिम, धावड़ा, तीवस और कोहा के पेड़ों से घिरी थी. जंगल में आग लगती तो हम अपनी बस्तियां बचाने के लिए उसे बुझा देते. तभी तो हमें अंग्रेजों ने जंगलों में ही रहने दिया. वहां से सालगिटी, गालंगा और आरा की भाजियां मिलती. बेचंदी को चावल की तरह उबालकर खाते. कच्चा खाने की चीजों में काला गदालू, बैलकंद, गोगदू और बबरा मिल जाते. ज्वस नाम की बूटी को उबलती सब्जी में मिला दो तो वह तेल का काम करती. इसके अलावा तेंदू, आंवला, महुआ, हिरडा, बेहड़ा, लाख और गोद भी खूब थी. फल, छाल और बीजों की कई किस्मों से दवा-दारू बनाते. खेती के लिए कोदो, कुटकी, जगनी, भल्ली, राठी, बडा़ आमतरी, गड़मल और सुकड़ी के बीज थे. ऐसे बीज बंजर जमीन में भी लहलहाते और साल में दो बार फसल देते. इसलिए अनाज का एक हिस्सा खाने और एक हिस्सा खेती के लिए बचा पाते थे.
यह तब की सरल, खुली और समृद्ध जीवनशैली की झलक भर है. बीते 3 दशकों से भांति-भांति की दखलअंदाजियों ने यहां की दुनिया को बुरी तरह प्रभावित किया. 1974 में सबसे पहले वन-विभाग ने बाघ के पंजों के निशान खोजने और उनकी लंबाई-चौड़ाई तलाशने के लिए सर्वे किया. फिर जमीनों को हदों में बांटा जाने लगा. इस तरह जंगल की जमीन राजस्व की जमीन में बदलने लगी और लोग यहां से बेदखल हुए. 1980 के बाद सरकार ने इन्हें पानी की मछली, जमीन के कंदमूल और पेड़ की पित्तयों के इस्तेमाल से रोका. मगर पूरा जंगल बाजार के लिए खोल दिया गया. जंगल के उत्पाद जब बाजार में बिकने लगे तो यहां की जनजाति भी जंगल की बजाय बाजारों पर निर्भर हो गई. इससे चीजों का लेन-देन बढ़ा और उन्हें रूपए-पैसों में तौला जाने लगा. अनाज के बदले नकद की महिमा बढ़ी. नकदी फसल के रुप में सोयाबीन और कपास पैदा किया जाने लगा. बाजार से खरीदे संकर बीज अधिक से अधिक पानी और रसायन मांगने लगे. समय के साथ खेती मंहगी होती गई. इस बीच नई जरूरतों में इजाफा हुआ और उनके खाने-पीने, रहने और पहनने में अंतर आया. आज कोरकू लोग कई जडियां और उनके उपयोग नहीं जानते.´´
यह तब की सरल, खुली और समृद्ध जीवनशैली की झलक भर है. बीते 3 दशकों से भांति-भांति की दखलअंदाजियों ने यहां की दुनिया को बुरी तरह प्रभावित किया. 1974 में सबसे पहले वन-विभाग ने बाघ के पंजों के निशान खोजने और उनकी लंबाई-चौड़ाई तलाशने के लिए सर्वे किया. फिर जमीनों को हदों में बांटा जाने लगा. इस तरह जंगल की जमीन राजस्व की जमीन में बदलने लगी और लोग यहां से बेदखल हुए. 1980 के बाद सरकार ने इन्हें पानी की मछली, जमीन के कंदमूल और पेड़ की पित्तयों के इस्तेमाल से रोका. मगर पूरा जंगल बाजार के लिए खोल दिया गया. जंगल के उत्पाद जब बाजार में बिकने लगे तो यहां की जनजाति भी जंगल की बजाय बाजारों पर निर्भर हो गई. इससे चीजों का लेन-देन बढ़ा और उन्हें रूपए-पैसों में तौला जाने लगा. अनाज के बदले नकद की महिमा बढ़ी. नकदी फसल के रुप में सोयाबीन और कपास पैदा किया जाने लगा. बाजार से खरीदे संकर बीज अधिक से अधिक पानी और रसायन मांगने लगे. समय के साथ खेती मंहगी होती गई. इस बीच नई जरूरतों में इजाफा हुआ और उनके खाने-पीने, रहने और पहनने में अंतर आया. आज कोरकू लोग कई जडियां और उनके उपयोग नहीं जानते.´´
पसतलई गांव के एक युवक ने नाम छिपाने की शर्त पर बताया कि- `जंगली जानवरों का शिकार करने वाली कई टोलियां यहां घूम रही हैं. कमला पारधन नाम की औरत इसी धंधे में लिप्त थी. बाद में पुलिस ने उसे धारणी में गिरफ्तार कर लिया.´ यहां जानवरों के हमलों की घटनाएं भी बढ़ रही हैं. कुंड गांव की बूढ़ी औरत मानु डाण्डेकर ने जानवरों से बचने के लिए तब की झोपड़ी को याद किया-`वह लकड़ियों और पत्तों की बनी होती, ऊंचाई हमसे 2-3 हाथ ज्यादा रहती. छत आधी गोल होती जो पूरी झोपड़ी को ढ़क लेती. उसमें घुसने के लिए दरवाजा उठाकर जाते. दरवाजे की हद इतनी छोटी रखते कि रेंगकर घुसा जाए. झोपड़ी के चारों तरफ 2-3 फीट लंबी पत्थरों की दीवार बनाते. रात को झोपड़ी के बाहर आग सुलगाते. पूरी बस्ती प्यार, तकरार, शादी, शिकार, जुदाई और पूजन से जुड़े किस्सों पर गाती-धिरकती. जैसे प्यार के गीत में लड़की से मिलने के लिए रास्ता पूछने, शादी के गीत में दूल्हा-दुल्हन बनकर आपस में बतियाने और जुदाई के गीत में शिकार पर गए पति के न लौटने की चर्चा होती.´´
यह बस्तियां अपनी पंरपरा और आधुनिक मापदण्डों के बीच फसी हैं. घरों की दीवारों पर रोमन केलेण्डर और रात में जलती लालटन लटकती हैं. बाहरियों के आने से इनके भीतर हीनता बस गई.यह खुद को बदलने में जुटे हैं. यहां के मोहल्लों ने कस्बों की नकल करके अपनी शक्लों को बिगाड़ रखा है. अब कोरकू बोली की जगह विदर्भ की हिन्दी का असर बढ़ रहा है. जबकि कार्यालय की भाषा मराठी है. इसलिए कोरकू जुबान फिसलती रहती है. खासकर स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को जानने और बोलने में मुश्किल आती है. कोरकू लोग कहते हैं कि सबकुछ खोने के बाद हमें कुछ नहीं मिला. स्कूल के टीचर और अस्पताल के डॉक्टर मैदानी इलाकों में बने हुए हैं. लेकिन हमारे हिस्से में न मैदान आया, न पहाड़. हम कहां जाए?