उस्मानाबाद से लौटकर
तीसरी कक्षा में पढ़ने वाली ललिता, सीमा और वैशाली स्कूल लगने के एक घण्टे पहले ही पहुंच गई हैं और स्कूल की सीढी पर खड़ी ललिता आज का जो पाठ पढ़ा रही है, उसे नीचे बैठी सीमा और वैशाली लिख रही हैं. तीनों अपने-अपने काम में इतनी मगन हैं कि उन्हें अपने अपने आस पास का भी ध्यान नहीं है. लेकिन उनके आस पास के लोग बड़े ध्यान से यह दृश्य देख रहे हैं.
यूं तो यह दृश्य बहुत साधारण लगता है लेकिन ऐसा है नहीं. असल में हम जिस स्कूल की बात कर रहे हैं, वह पारधी जनजाति का स्कूल है. पारधी यानी मिथ, इतिहास, सामाजिक परंपरा और कानून के मकड़जाल में फंसी हुई एक ऐसी जनजाति, जिसके लिए इस तरह के दृश्य सच में दुर्लभ हैं. ऐसे में स्थानीय लोगों के लिए यह स्कूल किसी अचरज से कम नहीं है.अंग्रेजों ने पारधी जनजाति को “ अपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 ” के तहत सूचीबद्ध किया था. अंग्रेज चले गए मगर धारणा बनी रही. इसलिए आज भी पारधी बस्तियां गांव से कोसों दूर जंगलों में होती हैं. कोई रास्ता इन बस्तियों को नहीं जाता. न ही सरकार की कोई योजना यहां आती है. न बिजली, न पानी, न राशन और न ही स्वास्थ्य की सुविधा. इसलिए यहां के लोग कहते हैं कि आजादी के 60 सालों में सरकार ने हमें एक ही चीज दी है, और वह है– महादेव बस्ती का यह स्कूल. तहसील मुख्यालय क्लब से 15 किलोमीटर दूर, पहाड़ी के नीचे गिनती के 60 घर हैं जिनमें 279 लोग रहते हैं. इनके दिलों से शासन की दहशत कुछ कम तो हुई है लेकिन पूरी तरह से गई नहीं. तभी तो हमारी गाड़ी देखते ही ज्यादातर लोग लापता हो गए. उन्हें लगा कि आसपास कोई वारदात हुई होगी जिसकी छानबीन के लिए पुलिस आई है. कुछ देर बाद ‘ अपनेवाले हैं ’, ऐसा कहकर लोग एक जगह जमा होने लगे. हम जिस जगह मिले वह बस्ती की एकमात्र पक्की बिल्डिंग स्कूल है. बोर्ड पर स्कूल बनने का साल (1998), बच्चों की कुल संख्या (27), लड़कियां (10) और लड़के (17) लिखा है. एक बड़े हॉल से होकर 2 कमरे खुलते हैं जिसमें 1 से 4 तक की कक्षाएं लगती हैं.
स्कूल का कार्यालय और उसके पीछे बाथरूम है. लेकिन 30 गुणा 60 फीट वाले इस स्कूल की पूरी तस्वीर तब बनी जब लोगों से मालूम हुआ कि दो सालों से यहां का परीक्षाफल 100 प्रतिशत रहा है और यह हर नज़र से जिले के बेहतर स्कूलों में गिना जाता है. गांव के सुबराराव शिंदे ने याद करते हुए कहा– “इसके पहले तो पुलिस के छापे ज्यादा लगते थे. इसलिए कोई शिक्षक आने की हिम्मत नहीं करता था. तब स्कूल था, पढ़ाई नहीं. अगर शिक्षक आते भी तो बच्चे नहीं होते. वे इधर उधर खेलते रहते और शिक्षकों को “ओ मास्टर” कहकर चिढ़ाते थे. हमें लगता कि इस स्कूल के बहाने पुलिस बस्ती पर निगाह रखती है.” फिर पहल की एक सामाजिक संस्थान ने. लोकहित सामाजिक विकास संस्था ने जब यहां कदम रखा तो कई मुश्किलों का सामना किया. संस्था के बजरंग टाटे ने बताते हैं- “ ये हमें पुलिस के दोस्त समझते. पूछने पह अपना नाम सलमान या शाहरुख बताते और फोटो तो बिल्कुल नहीं खिंचवाते. सभी साल में कई बार `कारन’ नाम का त्यौहार मनाते. सारा समय बच्चों को स्कूल बुलाने में ही चला जाता. `चाइल्ड राइट्स एंड यू’ के साथ मिलकर हम पारधी जनजाति के बीच काफी समय से काम करते आ रहे हैं इसलिए पुराना तजुर्बा काम आया.”गांव के कल्याण काले के अनुसार संस्था के लोगों ने पहले गांव वालों के साथ ज्यादा से ज्यादा वक्त बिताया. इससे गांव वालों के अंदर का डर दूर होने लगा. बातों ही बातों में गांव के लोगों ने जाना कि पढ़ाई कितनी जरूरी है. तब पढ़ाई में आने वाली अड़चनों पर घंटों बातचीत होती.बजरंग टाटे बताते हैं– “फिर 60 परिवारों के 135 महिला और 149 पुरुषों को लेकर एक सर्वे किया. समाज में शाला का मॉडल बनाया और 2007 को `समाजशाला’ बनी.” समाजशाला के बारे में शिक्षिका प्रतिभा दीक्षित के अनुसार इस स्कूल का पाठ्यक्रम सरकारी ही है. जिसे पूरा करने के दो शिक्षकों को रखा गया है. बच्चों को पढ़ाई के अलावा दूसरी रोचक गतिविधियों में शामिल करने के लिए एक कार्यकर्ता और दोनों शिक्षकों को विशेष प्रशिक्षण दिया गया.स्कूल के दूसरे शिक्षक संजय तांबारे बताते हैं- “पहले-पहल बच्चों के साथ खास दिक्कत यह रही कि इन्हें पारदी ही बोलनी आती थी, जो हमें नहीं आती थी. तब एक दूसरे को समझने के लिए खेल, गाने, चित्रों और कई चीज़ों का इस्तेमाल किया गया. धीरे-धीरे बच्चे मराठी, हिंदी और अंग्रेजी के पाठ भी सीखने लगे.” सुनिदि शिंदे से मालूम हुआ कि स्कूल की ताकत उसकी `समिति’ है जिसे बस्ती की औरतें संभालती हैं. यही बच्चों की हाजिरी, उनकी पढ़ाई-लिखाई और दोपहर के भोजन का ध्यान रखती हैं. यहां औरतों का अलग से एक समूह है, जिसमें सभी हर महिने 50 रुपए जमा करती हैं. यह रकम बच्चों पर खर्च होती है.समाजशाला से समनव्यक विठ्ठल खंडागले ने स्कूल में बिजली, शौचालय, मैदान और मैदान पर बने ब्लैकबोर्ड को युवा टोली की मेहनत का नतीजा बताया. इस युवा टोली में अठारह से तीस साल के युवा अगस्त में एक मेला लगाकर अफसरों के अलावा नेताओं को भी बुलाते हैं. इस साल जिला परिषद अध्यक्षा गोदावरे केंद्रे ने बस्ती में बिजली, पानी और पक्की सड़क बनाने का वादा किया है. इसी तरह उपविभागीय पुलिस अधीक्षक विजय महाले ने पारधी समाज के मन में पुलिस के डर को दूर करने के लिए कार्यशाला रखी थी. इसके अलावा प्राइमरी हेल्थ सेंटर, इडकुर' के डॉक्टर हर महीने हेल्थ कैम्प लगाकर बच्चों के साथ-साथ बस्ती के दूसरे लोगों की भी जाँच करने लगे है. हमारी अगली मागों में हैं लडकियों के लिए अलग से बाथरुम, वाचनालय और कैम्पस की दीवार बनवाना. ''5 दिसम्बर 2007 को महादेव बस्ती ने अपनी जाति-पंचायत में जो फैसला लिया उस पर जिले के कई लोगों को यकीन नहीं हुआ. उस दिन पूरी बस्ती एकमत हुई कि अगर हमारा बच्चा, हमारी गलती से स्कूल नहीं जाता तो हम इसका आर्थिक जुर्माना देंगे.जो बस्ती शिक्षा के दीपक से दूर रही थी, उसी बस्ती के बच्चों के लिए उनके माता-पिता ने पढ़ाई-लिखाई का यह मतलब जाना था. तब से स्कूल में बच्चों की 100 प्रतिशत उपस्थिति दर्ज होने लगी और एक भी बच्चा ड्रापआउट नहीं हुआ. प्रधानाध्यापक राम डाहवे ने खुशी जाहिर करते हुए कहा - ''इसकी तारीफ तो कलेक्टर भी करते हैं. समय के साथ शिक्षा भी बदल रही है जैसे अब हर काम कम्प्यटूर पर होने लगा है. वैसे तो इस इलाके के कई स्कूलों में कम्प्यटूर नहीं पहुचें लेकिन 'लोकहित' ने इस साल यहां दो कम्पयूटर दिए हैं बच्चे इन्हें ठीक से चलाने लगे हमारी कोशिश अब यही रहेगी''.
'चाईल्ड राइटस् एण्ड यू’ के महाप्रबंधक कुमार नीलेन्दु के मुताबिक - ''देशभर में एक समान स्कूल व्यवस्था लागू करने के लिए आंदोलन चल रहा है. यह स्कूल इस दिशा में एक मिसाल है. निशुल्क और बेहतर शिक्षा देने की राह में एक समान स्कूल व्यवस्था सही कदम है. अगर पारधी बस्ती के अदंर एक स्कूल इतना बदलाव कर सकता है तो दूसरी बस्तियों के सरकारी स्कूल क्यों नही.'' लेकिन ये कोशिशें काफी नहीं हैं.इस बस्ती के लोग गांव से बाहर होने के कारण वोटरलिस्ट से छूट जाते हैं. इनके घर की जमीन भी इनकी नहीं होती. 6 से 10 महीनों के लिए गन्ना काटने चले जाते हैं. कुछ मुबंई का रूख करते हैं तो उनके साथ बच्चे भी होते हैं. कई बार बच्चे ट्रेफिक सिग्नलों से होते हुए माफिया की दुनिया में दाखिला लेते हैं. हमें लगा मीडिया में आए दिन इनके जिन करनामों का रहस्योद्घाटन होता है, उनमें सामाजिक परतें दबी की दबी रह जाती है. खबरें खटाखट गुजर जाती हैं. फुलादेवी (बदला नाम) ने बताया कि- ''पुलिस की ज्यादतियां रूकी नही हैं. आसपास कोई चोरी हुई नहीं कि वह यहां आ धमकती है. फिर भी हमारे बच्चे समय के पहले स्कूल पहुचंते हैं.'' हमने उनसे इतना ही कहा ''बदलाव की यह आदत रहनी चाहिए.'' लेकिन क्लास 4 के बाद यह आदत रह पाएगी या नहीं कोई नहीं जानता. क्योंकि क्लास 5 के लिए यहां से 5 किलोमीटर दूर इटकुर जाना होगा. इस बस्ती से दूर जाने से बच्चे तो क्या, बड़े भी डरते हैं. वैसे इस जनजाति ने अपनी कई खूबियों को बचाकर रखा था, जो हमने उनके रहन-सहन और स्कूल में बने लोकचित्रों से जाना. शाम ढल गई लेकिन पारधी गानों की धुन पर बच्चों का थिरकना जारी रहा. चलते वक्त क्लास पहली के कुछ बच्चो ने घेर लिया. उनमें से दीपक शिंदे ने कहा- ''हमारी एक कविता तो सुनते जाओ.”हमने कहा - ''कौन-सी ?'' वह बोला-''सूरज को तोड़ने जाना है''. हमने कहा-''अगली बार, तोड़ कर सुनाना.''