- 'Vands' कच्छ में खानाबदोश जनजातियों की बस्ती को कहते है, जिसमें बबूल के पेड़ों के बीचोबीच एक कलस्टर में करीबन 40 अस्त-व्यस्त घर मिलेंगे। इसकी बसाहट, गांव से कोसों दूर होती है। क्योकि इसे गांव का हिस्सा ही नही माना जाता है, इसलिए यहां कानूनी पहचान और मौलिक हकों को पाने की जद्दोजहद आजतक जारी है। ऐसी बस्तियों की संख्या 195 है, जो सरकारी योजनाओं के नक्शो से अक्सर बाहर रहती हैं।
- यहां के लोग, पानी के लिए कई मील पैदल चलते हैं। 'पब्लिक हेल्थ सेंटर', उनकी पहुंच से काफी दूर (10 से 15 किलोमीटर तक) होते हैं। स्कूल हो या हर जरूरी सेवा, वहां के लिए पहुंच मार्ग और बसों का भी अकाल नजर आता है। आलम यह है कि :
87%= घर बिजली से रोशन नही हो पाए
40%= परिवारों के वास्ते राशन-कार्ड नही और
85%= गरीबों को 'गरीबी रेखा-सूची' में शामिल नही किया गया।
85%= गरीबों को 'गरीबी रेखा-सूची' में शामिल नही किया गया।
- यहां 1000 में से 145 बच्चे मौत के मुंह में चले जाते हैं
लिंग-अनुपात तो और भी चौकाने वाला है, 1000 : 844!
आधे बच्चे ऐसे है, जो स्कूल नहीं जा पाते
और जो जाते हैं, उनमें से भी ज्यादातर अनियमित रह जाते हैं।
- मैदान सूखे, मिट्टी रेतीली और पानी का स्वाद नमकीन होता है। फिर, यहां मौसम की मार भी खूब पड़ी है। बीते 10 सालो में, 6 बार सूखा, 2 बार चक्रवात, 2 बार बाढ़ के साथ ही जनवरी 2001 का भूकंप भारी तबाही बरपा चुका है। अपनी जीविका के लिए कुछ लोग ऊँची जातियों के यहां खेतीबाड़ी का काम करते हैं, तो कुछ पशुओं को चराने का। दलितों के खाते में जमीन का मामूली हिस्सा ही है, वे दैनिक मजदूरी पर निर्भर हैं। इसी प्रकार, 'कोल' जाति के लोग अपना गुजारा चलाने के लिए कोयला तोड़ते हैं। अक्सर, लोग काम की तलाश में दूसरी जगहों की तरफ रूख करते हैं। कुछेक, जब इन बस्तियों से कुछ ज्यादा ही बाहर निकल आते हैं, तब अपनी पहचान के लिए बहुत ज्यादा संघर्ष करते हैं।
आसपास, ऐसे कितने लोग हैं....
जो अपने ही देश के होते हुए, पराए हैं।