14.12.10

भोपाल: यह कैसी प्रेतलीला ?

चिन्मय मिश्र 

साधो यह मुरदों का गांव
पीर मरै, पैगम्बर मर गए, मर गए जिंदा जोगी।
                                                            -कबीर

3 दिसम्बर 2010 को भोपाल गैस त्रासदी के 26 साल पूरे हो गए। इस दौरान बकौल ओबामा भारत एक विकासशील से विकसित देश बन गया। वह एक आर्थिक महाशक्ति और तीसरी दुनिया का तथाकथित प्रवक्ता भी बन गया। देश में विदेशी पूंजी निवेश में काफी बढ़ोत्तरी हुई और वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों का पसंदीदा भी बन गया।

मगर भोपाल में यूनियन कार्बाइड से रिसी गैस से पीड़ित समुदाय के लिए तो ढाई दशक का यह समय जैसे ठहरा ही हुआ है। भोपाल की ट्रायल कोर्ट से आए फैसले के बाद लगा था कि केंद्र और राज्य सरकारें चेतेंगी और कुछ सकारात्मक पहल करेंगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। केंद्र सरकार ने कुछ आधा-अधूरा सा उत्तरदायित्व निभाया और मंत्रियों के समूह ने खैरात बांटने के अंदाज में कुछ घोषणाएं कर दीं। लेकिन पीड़ितों का शारीरिक, मानसिक या कानूनी किसी भी तरह की कोई राहत नहीं मिली।

कबीर के शब्दों में कहें तो संभवतः नीति निर्धारक सोचते हैं,

राजा मर गए परजा मर गये, मर गये वैद्य औ रोगी।
चंदा मरिहैं सुरजो मरिहैं, मरिहैं धरती अकासा।

तो फिर शासन प्रशासन को कुछ भी करने की क्या आवश्यकता है ? वैसे इस त्रासदी के बाद हुई वारेन एंडरसन की गिरतारी के खिलाफ भारत के सर्वाधिक प्रतिष्ठित उद्योगपति ने एक ‘मर्मस्पर्शी’ लेख लिखा था। बाद में वे 100 करोड़ रुपए लगाकर ‘देशहित’ में यूनियन कार्बाइड का जहरीला कचरा हटवाने का असफल प्रयास भी कर चुके हैं और अब राडिया टेप कांड के उजागर होने के बाद इन ‘देशभक्त’ उद्योगपति की नाराजगी की वजहें भी सार्वजनिक होती जा रहीं हैं। कहने का अर्थ यह है कि भारत में हो रहे विदेशी पूंजी निवेश के पीछे भी संभवतः यही भावना कार्य कर रही है कि यदि किसी देश में विश्व की अब तक की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना के लिए 26 वर्ष पश्चात भी किसी को पूर्णतः उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सका है तो निवेश का उससे बेहतर स्थान और क्या हो सकता है ?

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के कार्यकाल के पांच वर्ष पूरे होने पर 29 नवम्बर को भोपाल में ‘कार्यकर्ता गौरव दिवस’ में हजारों-हजार लोग इकट्ठा हुए थे। इसमें हुई आमसभा के दौरान भोपाल गैस पीड़ितों को लेकर एक शब्द भी कहा गया हो, ऐसा सुनने में नहीं आया। 3 दिसम्बर को प्रतिवर्ष सभी धर्मों और राजनीतिक दलों द्वारा आयोजित प्रार्थना सभाएं महज रस्मी होकर रह गई हैं। आज कई राष्ट्र दूसरे महायुद्ध के बीत जाने के 60 वर्षों बाद भी अपने द्वारा किसी अन्य राष्ट्र के प्रति की गई अमानवीयता के लिए क्षमा मांगते नजर आते हैं। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपनी हालिया भारत यात्रा के दौरान इस संबंध में माफी मांगना तो दूर, इस दुर्घटना का उल्लेख करना तक जरुरी नहीं समझा।

भारतीय न्याय व्यवस्था भी एक गोल घेरे में रहकर लगातार दोहराव से ग्रसित हो गई है। ट्रायल कोर्ट से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक सब अपनी-अपनी भूमिका की समीक्षा की बात अवश्य करते नजर आते हैं लेकिन धरातल पर कुछ भी नजर नहीं आ रहा है। गैस पीड़ितों के साथ संघर्ष कर रहे संगठन और व्यक्ति लगातार सरकार की विरोधाभासी प्रवृत्तियों को उजागर कर रहे हैं।

प्रशासन तंत्र भी मामले और निपटारे को लगातार लंबित करता जा रहा है। गैस पीड़ितों के लिए बना अस्पताल श्रेष्ठी वर्ग के सुपर स्पेशयलिटी अस्पताल में बदल गया। गैस पीड़ितों के स्वास्थ्य पर बड़े प्रभावों के आकलन व उपचार के लिए गठित शोध समूह को कार्य करने से रोक दिया गया। आज तक इस बात को सार्वजनिक नहीं किया गया कि अंततः भोपाल कितने प्रकार के जहर का शिकार हुआ था।

इस नव उदारीकरण के युग में विकास का पैमाना महज आर्थिक ही रह गया है। लाखों करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार की रकम भी जीडीपी में मिल जाएगी और आंकड़े बताने लगेंगे कि हम सब कितनी तेजी से गरीबी रेखा के पार आते जा रहे हैं। परंतु इसके पीछे अलिखित यह है कि गरीबी रेखा वास्तव में ऐसी लक्ष्मण रेखा है इसे जो भी पार करने का प्रयास करेगा वह भस्म हो जाएगा। गांवों से शहरों की ओर पलायन इसी का प्रतीकात्मक स्वरूप ही तो है। भोपाल के गैस पीड़ित अपनी आधी-अधूरी सांस के साथ पिछले ढाई दशक से संघर्ष कर रहे हैं। ये संघर्ष अब एक प्रतीक में बदल चुका है। ऐसा नहीं है कि भोपालवासी यह नहीं जानते कि,

तैतीस कोटी देवता मर गए, पड़ी काल की फांसी।

वे जानते हैं कि उनका संघर्ष संभवतः उन्हें स्वयं को न्याय नहीं दिलवा सके। लेकिन इसके परिणामस्व्रूप भारत व तीसरी दुनिया के अनेक देशों में जहर फैलाने वाले उद्योगों की स्थापना पर लगाम अवश्य लगी है।

आज यूनियन कार्बाइड या डाउ केमिकल्स को भारत में नया कारखाना लगाने में असफलता का सामना करना पड़ा है क्योंकि उनका पुराना ‘नाम’ और ‘काम’ आड़े आ रहा है। पुणे के निवासियों ने अपने शहर के पास डाउ केमिकल्स को कारखाना नहीं लगाने दिया। दरअसल भारतीय राजनीतिक तंत्र हमारी जनता की धैर्य की लगातार परीक्षा ले रहा है। स्थितियां बेकाबू होने पर वह विशेष सहायता पैकेज की घोषणा करता है। पिछले कुछ वर्षों में महाराष्ट्र में विदर्भ और मध्यप्रदेश में नर्मदा घाटी में ऐसे पैकेज भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुके हैं। इस क्रम में अब देश के नक्सल प्रभावित जिलों के लिए करोड़ो रुपए के विशेष सहायता पैकेज की घोषणा की गई है। इसका हश्र भी वहीं होना है।

भोपाल गैस पीड़ितों को भी लगातार भुलावे में रखकर रोज नई-नई घोषणाएं करना अर्थहीन है। भोपाल गैस त्रासदी को लेकर बरती जा रही लापरवाही अनजाने में नहीं हो रही है। यह एक घृणित प्रवृत्ति है जो कि उद्योगपतियों को यह दर्शा रही है कि उन्हें इस देश में कुछ भी करने की छूट है। इसी के समानांतर आम व्यक्ति को भी समझना होगा कि इस मामले में उसकी अरुचि स्वयं उसके लिए भी खतरनाक है। वैसे कबीर ने यह भी लिखा है,

मानुष तन पायौ बड़े भाग अब विचारी के खेलो फाग!

कोई टिप्पणी नहीं: