22.5.11

बाल शोषण के कई रूप


जया सिंह
क्राई से जुडी हैं.


रोजाना बहुत से बच्चे मारने-पीटने व गाली-गलौज वाले शोषण से लेकर यौन शोषण तक की चपेट में आते हैं. इनमें कई ऐसे हैं कि जिन्हें हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में शोषण के तौर पर देखते ही नहीं. घर में काम करने वाला बाल मजदूर हो या स्कूलों में बच्चों की शिक्षकों के हाथों पिटाई, हम इसे शोषण के तौर पर नहीं देखते. इनमें निश्चित तौर पर सबसे भयावह बाल यौन शोषण है. बच्चा चाहे 3-4 साल का ही क्यों न हो, उसका यौन शोषण होता है तो उसकी मानसिकता पर उतना ही बुरा प्रभाव पड़ता है जितना 10-11 साल के बच्चे के यौन शोषण से उस पर पड़ता है.

दरअसल, यौन शोषण के लिए बच्चे आसान टारगेट होते हैं. ज्यादातर मामलों में घर-परिवार और परिचित ही ऐसे अपराध में शामिल होते हैं. मौजूदा आधुनिक जीवनशैली में माता-पिता दोनों कामकाजी हो रहे हैं. उन्हें महानगरों की जिंदगी से तालमेल बिठाने के लिए ज्यादा से ज्यादा वक्त अपने काम और सोशल सर्किल में देना होता है. ऐसी सूरत में उनके घर में बच्चा अकेला होता है. या तो वह नौकरों के हवाले होता है या नजदीकी रिश्तेदारों के हवाले. माता-पिता के पास इतनी फुरसत नहीं होती है कि वे बारीकी से बच्चों का ध्यान रख पाएं. ऐसे बच्चों को ज्यादातर निशाना बना लिया जाता है.

बच्चों का यौन शोषण हो जाने पर ज्यादातर मामले पुलिस तक पहुंचते ही नहीं. घर-परिवार के लोगों को इज्जत-प्रतिष्ठा का ख्याल आने लगता है. उन्हें उस मासूम को लगे दंश की पीड़ा नहीं होती. घर ही नहीं, स्कूल, आंगनवाड़ी या फिर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर भी बच्चे सुरक्षित नहीं हैं. वहां भी उनकी बेहतर देखभाल नहीं होती है. शहरों में जागरूकता बढ़ी है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में अभी इस पहलू को लेकर परम्परागत सोच बरकरार है. 'क्राई" इस मामले में जागरूकता बढ़ाने के स्तर पर काम कर रहा है. इसके अलावा हम लोग यह भी देखने की कोशिश कर रहे हैं कि बच्चों पर होने वाले अपराध को लेकर शासन व्यवस्था के अंदर किस तरह के कदम उठाए जा रहे हैं. इस दिशा में सूचना के अधिकार से हमें काफी मदद मिली है.

अब तो बच्चों के यौन शोषण वाले पर्यटन के मामले भी बढ़े हैं. यह संगठित कारोबार के तौर पर फैल रहा है. इसमें गरीब बच्चों को धकेला जा रहा है. इसके लिए बच्चों के अपहरण के मामले बढ़े हैं. देश में हर साल 9 हजार बच्चे गायब हो रहे हैं. इसमें दिल्ली सबसे टॉप पर है जहां रोजाना 18 बच्चे गुम हो रहे हैं. इस बारे में पुलिस का रवैया दोषपूर्ण है. उसे लगता है कि इलाके में बच्चों के गायब होने की रिपोर्ट दर्ज की तो कार्रवाई का दबाव बढ़ेगा. वे रिपोर्ट दर्ज करने से बचते हैं. पहली दिसम्बर, 2008 से 30 जून, "09 के बीच दिल्ली में 3,812 बच्चों के गुम होने की शिकायत हुई लेकिन मात्र 1,133 एफआईआर दर्ज हुर्इं. ज्यादातर मामलों में पुलिस इनकार करती रहती है कि ऐसा नहीं हुआ है, जबकि उसे ऐसे मामलों में तत्परता से काम करने की जरूरत है.

समाज में शिक्षकों, डॉक्टरों को भी अपनी जिम्मेदारी ठीक ढंग से निभानी चाहिए. अगर कोई डॉक्टर इलाजे कराने आए मासूम का बलात्कार करता है तो उस डॉक्टर के विरुद्ध सख्त कार्रवाई होनी चाहिए. यही मापदंड शिक्षकों के प्रति भी अपनाना चाहिए पर मुश्किल है कि सरकार इस दिशा में गम्भीर कदम नहीं उठा रही है. चाइल्ड सेक्सुअल अफेंस एक्ट का मसौदा तैयार है लेकिन सरकार उसे लागू कराने में दिलचस्पी नहीं दिखा रही है.

प्रस्तुति : प्रदीप कुमार. साभार : सहारा समय 

5.5.11

गरीबी और बाल मजदूरी के बीच का रिश्ता


श्यामल मजूमदार

करीब एक पखवाड़ा पहले, मोइन नामक एक बच्चे को उसके चाचा ने पीट-पीटकर मार डाला। मोइन अपने चाचा की फैक्टरी में काम करता था। अगर टेलीविजन चैनलों ने उसकी दर्दनाक तस्वीरें न दिखाई होतीं तो शायद यह वाकया लोगों के जेहन में घर भी न कर पाता। अब भी इस बात में संदेह ही है कि एक बार चैनलों का ध्यान हटने के बाद कोई मोइन के साथ घटी घटना को कभी याद भी करेगा या नहीं।

ऐसा अनेक बार हो चुका है। महज एक वर्ष पहले की बात है, बेंगलुरू में  एक इंजीनियर दंपती को उनके यहां घरेलू काम करने वाली 14 वर्षीय बच्ची को प्रताडि़त करने के लिए गिरफ्तार किया गया था। उस लड़की ने पुलिस को बताया कि उसे काम के दौरान उसके कपड़े उतारने के लिए कहा गया था जब उसने विरोध किया तो उसे बुरी तरह मारा पीटा गया। दंपती को कुछ दिन के बाद जमानत मिल गई और जब मीडिया भी और अधिक सनसनीखेज मामलों की तलाश में आगे बढ़ गया तो लोगों में भी उसे लेकर जिज्ञासा कम हो गई।


चूंकि अंतराष्ट्रीय श्रमिक दिवस अभी हाल ही में बीता है तो यह देश में बाल श्रम के आंकड़ों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने का एकदम उचित समय है। बचपन बचाओ आंदोलन के मुताबिक देश भर में अभी भी 1.26 करोड़ बच्चे खतरनाक फैक्टरियों में काम करने के लिए विवश हैं। इतना ही नहीं दिल्ली की सड़कों से रोजाना लगभग पांच बच्चे खो जाते हैं। इन बच्चों को अंतरराज्यीय गैंग बंधुआ मजदूरी के लिए बाहर लेकर चले जाते हैं।

कुछ अन्य बच्चे अभी भी घरों के फर्श साफ करते, पत्थरों की खदानों में  गर्मियों में पसीना बहाते, दिन के 16 घंटे खेतों में काम करते, शहरों की गलियों में कचरा बीनते या फिर सड़क किनारे ढाबों में खाना परोसते दिख जाएंगे। ज्यादा बुरी बात यह है कि खतरनाक पेशों में उनके काम करने की प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। क्या ये बच्चे मोइन के मुकाबले बेहतर हैं?


बात करते हैं बीड़ी उद्योग की। बाल श्रम के खिलाफ अनगिनत कानून होने के बावजूद आज भी हर दिन बीड़ी उद्योग के बाल श्रमिक हर रोज औसतन 9 रुपये के मेहनताने पर 1,500 बीडिय़ां बनाते हैं। यहां काम की परिस्थितियां बच्चों के स्वास्थ्य के लिए एकदम प्रतिकूल होती हैं। तंबाकू के बीच बहुत अधिक समय बिताने से उन्हें फेफड़ों की बीमारी समेत तमाम तरह की तकलीफें हो जाती हैं। बीड़ी उद्योग से संबंधित समुदायों में बड़े पैमाने पर तपेदिक की बीमारी पाई जाती है।


मानवाधिकार निगरानी संबंधी एक अध्ययन में दर्शाया गया है कि कैसे हर उद्योग में बाल श्रम अधिनियम का बड़े पैमाने पर उल्लंघन किया जाता है। जिन प्रावधानों का उल्लंघन किया जाता है उनमें हर तीन घंटे के काम के बाद एक घंटे के आराम, दिन में अधिकतम छह घंटे काम, सुबह 8 बजे के पहले और शाम 7 बजे के बाद बच्चों के काम पर रोक, हर सप्ताह एक दिन का अवकाश और विभिन्न प्रकार के स्वास्थ्य सुरक्षा संबंधी उपाय शामिल हैं।

क्राई (चाइल्ड राइट्स ऐंड यू) के एक शोध प्रपत्र में मुख्य कार्याधिकारी पूजा मारवाह कहती हैं कि 7,000 से अधिक गांवों और झुग्गियों में जहां उनका संगठन काम करता है, वहां इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण मिले हैं कि आसपास के इलाकों में निशुल्क और बेहतर सरकारी विद्यालयों की कमी से बाल श्रम का सीधा संबंध है। विद्यालयों में भवन की कमी, शिक्षकों की कमी, अनियमित शिक्षण, बच्चियों के लिए अलग शौचालय न होना आदि कुछ ऐसी बातें हैं जो बच्चों को विद्यालयों से इतर काम की ओर मोड़ देती हैं।


बहरहाल, पिछले कुछ दशकों के दौरान विद्यालयों में बच्चों के दाखिले की संख्या में उल्लेखनीय इजाफा हुआ है। ग्रॉस इनरोलमेंट रेशियो (जीईआर) के मुताबिक कक्षा एक से आठ तक यह अनुपात 94.9 फीसदी और कक्षा एक से 12 तक यह 77 फीसदी है। मारवाह कहती हैं कि जीईआर के इन आंकड़ों में बड़ी संख्या उन बच्चों की है जो या तो विद्यालय जाते नहीं या फिर बीच में ही पढ़ाइ्र्र बंद कर देते हैं।
सरकारी विद्यालयों में कक्षा 5 तक एक चौथाई बच्चे पढ़ाई बंद कर देते हैं और कक्षा आठ तक इनकी संख्या आधी हो जाती है। अनेक बच्चे महज इसलिए स्कूल नहीं जा पाते क्योंकि उनके आसपास स्कूल है ही नहीं। मारवाह बताती हैं कि देश में तकरीबन 17,282 ऐसी बस्तियां हैं जिनके एक किलोमीटर के दायरे में कोई प्राथमिक विद्यालय नहीं है।

क्राई यह भी बताता है कि कैसे बच्चों का स्वास्थ्य हमारी देश की प्राथमिकताओं से गायब हो चुका है। 1,000 पर 50 बच्चों की बाल मृत्युदर इसकी ओर सीधा संकेत करती है जबकि सरकार ने 2012 तक इसे कम करके 28 तक लाने का लक्ष्य तय कर रखा है। दुनिया के समस्त अल्पपोषित बच्चों में से 42 फीसदी हमारे देश में हैं। इतना सब होने के बावजूद सरकार सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 1.27 फीसदी पूरे देश के स्वास्थ्य पर खर्च करती है।

हालांकि हमारा देश कानून बनाने के मामले में पीछे नहीं है। हाल ही में बच्चों के घरों में काम करने पर प्रतिबंध लगाया गया है। विशेषज्ञों का कहना है कि कानून का नाम मात्र का ही असर होगा क्योंकि बाल श्रम विकट गरीबी का सह उत्पाद मात्र है। ये बच्चे अपने गरीब परिवारों के लिए भोजन जुटाते हैं या कहें कि खुद को किसी तरह भुखमरी से बचाए हुए हैं। उदाहरण के लिए शिवकाशी के 60 फीसदी घरों के बच्चे काम करते हैं और इन परिवारों की दो तिहाई आय बच्चों के जरिए ही आती है।