31.12.10

2009 आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या 17368

शिरीष खरे

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक 2009 में देश के 17368 किसानों ने आत्महत्या की है. यह बीते 6 सालों में सर्वाधिक है. 2008 में 16196 किसानों ने आत्महत्या की थी. कुल मिलाकर 1997 से अब तक 216500 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. इन आत्महत्याओं में 5 बड़े राज्यों या ‘आत्महत्या बेल्ट’ कहलाने वाले महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों में कुल 10765 किसानों यानी 62 प्रतिशत किसानों ने आत्महत्या की है. महाराष्ट्र लगातार 10 सालों से आत्महत्या करने वाले राज्यों में सबसे आगे रहा है. यहां इस वर्ष 2,872 किसानों ने आत्महत्या की है. 2282 किसानों द्वारा की गई आत्महत्या के चलते कर्नाटक दूसरे स्थान पर है.

महाराष्ट्र में 1997 से अब तक कुल 44276 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं, जो कि देशभर की कुल आत्महत्याओं का 20 प्रतिशत है. बाकी के पांच बड़े राज्यों में कर्नाटक में 2009 में आत्महत्याओं में सर्वाधिक वृद्धि हुई है. यहां बीते साल के मुकाबले 545 अधिक किसानों ने आत्महत्या की है. आंध्रप्रदेश में कुल 2414 किसानों ने आत्महत्या की है यह पिछले वर्ष से 309 अधिक है. वहीं मध्यप्रदेश में 1395 किसानों ने व छत्तीसगढ़ में 1802 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं जो कि बीते साल के मुकाबले क्रमशः 16 और 29 अधिक हैं.

भारत में किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं पर व्यापक अध्ययन करने वाले अर्थशास्त्री के नागराज का कहना है कि ''एक ओर तो किसानों की जनसंख्या में कमी आ रही है वहीं दूसरी ओर आत्महत्याओं का बढ़ना यह सुनिश्चित कर रहा है कि किसानों की समस्या अभी भी ज्वलंत है.'' 2003 से 2009 के मध्य करीब 102628 किसानों ने आत्महत्या की है यानी सालाना औसतन 17105 किसान. इस प्रकार इस अवधि में रोजाना करीब 47 किसानों ने या प्रति 30 मिनट में एक किसान द्वारा आत्महत्या की गई है.

22.12.10

बाल संप्रेक्षण गृह हैं या जेल

बीते दिनों क्राई और एमनेस्टी इंटरनेशनल के कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय बालक अधिकार संरक्षण आयोग को भेजी विस्तृत रिपोर्ट में आगरा और मथुरा जिलों के बाल संप्रेक्षण गृहों  को जेल बताते हुए कई अहम कमियों का खुलासा किया. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि स्टाफ को किशोर अधिनियम के बारे में ही पता नहीं है. बाल कल्याण समिति भंग है और कई बच्चों पर कई जघन्य अपराधों के आरोप में हैं. संप्रेक्षण गृहों में क्षमता से दो गुना अधिक तक बच्चे बंद हैं. 6 कमरों में 30 बच्चों को रखने की क्षमता होती है लेकिन यहां केवल 2 कमरों में ही 62 बच्चों को बंद किया हुआ हैं. बाकी के कमरे अन्य उपयोग के लिए काम में लिए जा रहे हैं. खेल का मैदान तो दूर पढ़ाई की कोई व्यवस्था भी नहीं है. रियाजुद्दीन वर्ष, पटवारी सिंह, कालू सिंह, अभिनिक सिंह और राबिन सिंह 12 साल से भी कम उम्र के बच्चे हैं. वही दूसरी तरफ मेघ सिंह और अकील पर 18 साल से अधिक की उम्र का आरोप  है. इनमें मेघ सिंह की एक साल की बच्ची भी है और कहा जा रहा है कि उसे 18 साल से कम दर्शाकर बंद किया गया है.

एक अन्य किशोर बीएसए कालेज में एलएलबी का छात्र है. उस पर अपहरण और बलात्कार का आरोप है. सवाल किया गया है कि क्या एलएलबी का छात्र और एक बच्ची का पिता 18 साल से कम उम्र के हो सकते हैं? साथ ही रिपोर्ट में कहा गया है कि कई बच्चे 3 माह से अधिक समय से बंद हैं जिनमें अकील 4 माह, अनीस 8 माह , विशाल 17 माह, संजीव 21 माह, पटवारी सिंह 1 साल और कृष्णा 2 साल से बंद हैं.

आयोग से अपील की गयी है कि आगरा व मथुरा के किशोर संप्रेक्षण ग्रहों में बंद किशोरों का मेडिकल परीक्षण कराया जाए. सुधार के लिए कड़े निर्देश जारी किए जाएं और उनका सख्ती से पालन हो. स्टाफ को किशोर न्याय अधिनियम से प्रशिक्षित किया जाए.

16.12.10

स्कूलों के असुरक्षित बच्चे

शिरीष खरे

यूं तो स्कूलों को बच्चों के वर्तमान और भविष्य गढ़ने का केन्द्र माना जाता है. लेकिन बीते कुछ सालों से स्कूलों के भीतर से बच्चों के शोषण और उत्पीड़न की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के मुताबिक बीते तीन सालों में स्कूलों के भीतर बच्चों के साथ होने वाले शारारिक प्रताड़ना, यौन शोषण, दुर्व्यवहार, हत्या जैसे मामलों में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है. मौजूदा परिस्थितियां भी कुछ ऐसी हैं कि बच्चों के लिए हिंसामुक्त और भयमुक्त माहौल में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने का सवाल अब बहुत बड़ा सवाल बन चुका हैं.

बीते साल स्कूलों में बच्चों के उत्पीड़न के दर्ज हुए मामलों में अगर तमिलनाडू के 12 मामले अलग रखे जाए तो अधिकतर मामले हिंदी भाषी राज्यों से हैं. इसमें 27 मामलों के साथ जहां उत्तरप्रदेश अव्वल है, वहीं उसके बाद दिल्ली 9, मध्यप्रदेश 9, बिहार 4, राजस्थान 4 और हरियाणा 4 का स्थान आता है.

2007 में केन्द्रीय महिला व बाल विकास मंत्रालय द्वारा बच्चों की सुरक्षा की स्थिति को लेकर देश भर में किये गए सर्वेक्षण के मुताबिक हर दो बच्चों में से एक को स्कूल में यौन शोषण का शिकार बनाया जा रहा है. बीते साल राष्ट्रीय बाल अधिकार पैनल को स्कूलों में बच्चों के उत्पीड़न की तकरीबन 100 शिकायतें मिली. इसके बहुत बाद में केन्द्रीय महिला व बाल विकास मंत्री ने भी स्कूलों में बच्चों के बढ़ते उत्पीड़न के ग्राफ को स्वीकारते हुए चिंता जाहिर की.

अनुशासनात्मक कार्रवाई के नाम पर खास तौर से सरकारी स्कूलों में आज भी ‘गुरूजी मारे धम्म-धम्म विद्या आये छम्म-छम्म’ जैसी कहावतें प्रचलित हैं. गौर करने लायक तथ्य है कि अनुशासनात्मक कार्रवाई की आधी से अधिक घटनाएं केवल सरकारी स्कूलों में होती हैं. ऐसी घटनाओं को अंजाम देते समय इस बात को नजरअंदाज बना दिया जाता है कि किसी भी तरह के दुर्व्यवहार से बच्चे में झिझक, संकोच और घबराहट की भावना घर कर सकती है. बच्चों के भीतर की ऐसी भावनाओं को ड्राप आउट की दर अधिक होने के पीछे की एक बड़ी वजह के तौर पर देखा जाता है. लेकिन सामान्य तौर से हमारे आसपास बच्चों के साथ होने वाले दुराचारों को गंभीरता से नहीं लिए जाने की मानसिकता है. इस तरह से बच्चों पर होने वाले अत्याचारों पर चुप रहकर हम उसे जाने-अनजाने प्रोत्साहित कर रहे हैं. जबकि बच्चों को दिये जाने वाली तमाम शारारिक और मानसिक प्रताड़नाओं को तो उनके मूलभूत अधिकारों के हनन के रुप में देख जाने की जरूरत है, जिन्हें कायदे से किन्हीं भी परिस्थितियों में बर्दाश्त नहीं किए जाने चाहिए लेकिन क्या किया जाए आलम यह है कि सरकार ने स्कूलों में सुरक्षित बचपन से जुड़े कई तरह के सवालों के साथ-साथ उनसे जुड़ी मार्गदर्शिका को तैयार किये जाने की मांग को भी लगातार अनदेखा किया जाता रहा है.

वहीं बच्चों का भोलापन ही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी समझी जाती है. एक तरफ बच्चे अपने डर, अवसाद और अकेलेपन को खुलकर कह नहीं पाते तो दूसरी तरफ बच्चों के परिवार वाले भी उनकी बातों को कोई खास अहमियत नहीं देते. बच्चों के भोलेपन के शिकारी ऐसी स्थिति का चुपचाप फायदा उठाते हुए अपनी कुंठाओं को पूरा करते हैं. अक्सर देखा गया है कि बच्चों के उत्पीड़न में वहीं लोग शामिल होते हैं जिनके ऊपर उनकी सुरक्षा की जवाबदारी होती है. ऐसे में बच्चों के परिवार वालों के लिए यह जरूरी है कि वह कुछ समय बच्चों के साथ बिताएं और उनसे खुलकर बातचीत करते रहें.

हालांकि स्कूलों में उत्पीड़न के मामले में पीड़ित बच्चों को किसी उम्र विशेष में नहीं बांधा जा सकता लेकिन दर्ज हुए अधिकतर मामलों से साफ हुआ है कि यौन उत्पीड़न से पीड़ित बच्चों में 8 से 12 साल तक आयु-समूह के बच्चों की संख्या सर्वाधिक रहती है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक शारारिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक, दुर्व्यवहार, लैंगिक असामानता इत्यादि बाल उत्पीड़न के अंतर्गत आते हैं. फिर भी बच्चों के उत्पीड़न के कई प्रकार अस्पष्ट हैं और उन्हें परिभाषित करने की संभावनाएं अभी तक बनी हुई हैं. दूसरी तरफ राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो बच्चों के उत्पीड़न से जुड़े केवल वहीं मामले देखता है, जो पुलिस-स्टेशनों तक पहुंचते हैं. जबकि सर्वविदित है कि प्रकाश में आए मामलों के मुकाबले अंधेरों में रहने वाले मामलों की संख्या हमेशा से ही कई गुना तक अधिक रहती है.

हालांकि बच्चों के सुरक्षित बचपन के लिए सरकार ने जहां बजट में 0.03 प्रतिशत बढ़ोतरी की है वहीं इसके लिए देश में पर्याप्त कानून, नीतियां और योजनाएं हैं. लेकिन इन सबके बावजूद महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा किये गए सर्वेक्षण में 65 प्रतिशत बच्चे महज शारारिक प्रताड़नाएं भुगत रहे हैं. जाहिर है समस्या का निपटारा केवल बजट में बढ़ोतरी या सख्ती और सहूलियतों के प्रावधानों भर से मुमकिन नहीं हैं बल्कि इसके लिए मौजूदा शिक्षण पद्धतियों को नैतिकता और सामाजिकता के अनुकूल बनाये जाने की भी जरूरत है. इसी के साथ बच्चों के सीखने की प्रवृतियों में सुरक्षा के प्रति सचेत रहने की प्रवृति को भी शामिल किये जाने की जरूरत है.

14.12.10

भोपाल: यह कैसी प्रेतलीला ?

चिन्मय मिश्र 

साधो यह मुरदों का गांव
पीर मरै, पैगम्बर मर गए, मर गए जिंदा जोगी।
                                                            -कबीर

3 दिसम्बर 2010 को भोपाल गैस त्रासदी के 26 साल पूरे हो गए। इस दौरान बकौल ओबामा भारत एक विकासशील से विकसित देश बन गया। वह एक आर्थिक महाशक्ति और तीसरी दुनिया का तथाकथित प्रवक्ता भी बन गया। देश में विदेशी पूंजी निवेश में काफी बढ़ोत्तरी हुई और वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों का पसंदीदा भी बन गया।

मगर भोपाल में यूनियन कार्बाइड से रिसी गैस से पीड़ित समुदाय के लिए तो ढाई दशक का यह समय जैसे ठहरा ही हुआ है। भोपाल की ट्रायल कोर्ट से आए फैसले के बाद लगा था कि केंद्र और राज्य सरकारें चेतेंगी और कुछ सकारात्मक पहल करेंगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। केंद्र सरकार ने कुछ आधा-अधूरा सा उत्तरदायित्व निभाया और मंत्रियों के समूह ने खैरात बांटने के अंदाज में कुछ घोषणाएं कर दीं। लेकिन पीड़ितों का शारीरिक, मानसिक या कानूनी किसी भी तरह की कोई राहत नहीं मिली।

कबीर के शब्दों में कहें तो संभवतः नीति निर्धारक सोचते हैं,

राजा मर गए परजा मर गये, मर गये वैद्य औ रोगी।
चंदा मरिहैं सुरजो मरिहैं, मरिहैं धरती अकासा।

तो फिर शासन प्रशासन को कुछ भी करने की क्या आवश्यकता है ? वैसे इस त्रासदी के बाद हुई वारेन एंडरसन की गिरतारी के खिलाफ भारत के सर्वाधिक प्रतिष्ठित उद्योगपति ने एक ‘मर्मस्पर्शी’ लेख लिखा था। बाद में वे 100 करोड़ रुपए लगाकर ‘देशहित’ में यूनियन कार्बाइड का जहरीला कचरा हटवाने का असफल प्रयास भी कर चुके हैं और अब राडिया टेप कांड के उजागर होने के बाद इन ‘देशभक्त’ उद्योगपति की नाराजगी की वजहें भी सार्वजनिक होती जा रहीं हैं। कहने का अर्थ यह है कि भारत में हो रहे विदेशी पूंजी निवेश के पीछे भी संभवतः यही भावना कार्य कर रही है कि यदि किसी देश में विश्व की अब तक की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना के लिए 26 वर्ष पश्चात भी किसी को पूर्णतः उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सका है तो निवेश का उससे बेहतर स्थान और क्या हो सकता है ?

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के कार्यकाल के पांच वर्ष पूरे होने पर 29 नवम्बर को भोपाल में ‘कार्यकर्ता गौरव दिवस’ में हजारों-हजार लोग इकट्ठा हुए थे। इसमें हुई आमसभा के दौरान भोपाल गैस पीड़ितों को लेकर एक शब्द भी कहा गया हो, ऐसा सुनने में नहीं आया। 3 दिसम्बर को प्रतिवर्ष सभी धर्मों और राजनीतिक दलों द्वारा आयोजित प्रार्थना सभाएं महज रस्मी होकर रह गई हैं। आज कई राष्ट्र दूसरे महायुद्ध के बीत जाने के 60 वर्षों बाद भी अपने द्वारा किसी अन्य राष्ट्र के प्रति की गई अमानवीयता के लिए क्षमा मांगते नजर आते हैं। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपनी हालिया भारत यात्रा के दौरान इस संबंध में माफी मांगना तो दूर, इस दुर्घटना का उल्लेख करना तक जरुरी नहीं समझा।

भारतीय न्याय व्यवस्था भी एक गोल घेरे में रहकर लगातार दोहराव से ग्रसित हो गई है। ट्रायल कोर्ट से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक सब अपनी-अपनी भूमिका की समीक्षा की बात अवश्य करते नजर आते हैं लेकिन धरातल पर कुछ भी नजर नहीं आ रहा है। गैस पीड़ितों के साथ संघर्ष कर रहे संगठन और व्यक्ति लगातार सरकार की विरोधाभासी प्रवृत्तियों को उजागर कर रहे हैं।

प्रशासन तंत्र भी मामले और निपटारे को लगातार लंबित करता जा रहा है। गैस पीड़ितों के लिए बना अस्पताल श्रेष्ठी वर्ग के सुपर स्पेशयलिटी अस्पताल में बदल गया। गैस पीड़ितों के स्वास्थ्य पर बड़े प्रभावों के आकलन व उपचार के लिए गठित शोध समूह को कार्य करने से रोक दिया गया। आज तक इस बात को सार्वजनिक नहीं किया गया कि अंततः भोपाल कितने प्रकार के जहर का शिकार हुआ था।

इस नव उदारीकरण के युग में विकास का पैमाना महज आर्थिक ही रह गया है। लाखों करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार की रकम भी जीडीपी में मिल जाएगी और आंकड़े बताने लगेंगे कि हम सब कितनी तेजी से गरीबी रेखा के पार आते जा रहे हैं। परंतु इसके पीछे अलिखित यह है कि गरीबी रेखा वास्तव में ऐसी लक्ष्मण रेखा है इसे जो भी पार करने का प्रयास करेगा वह भस्म हो जाएगा। गांवों से शहरों की ओर पलायन इसी का प्रतीकात्मक स्वरूप ही तो है। भोपाल के गैस पीड़ित अपनी आधी-अधूरी सांस के साथ पिछले ढाई दशक से संघर्ष कर रहे हैं। ये संघर्ष अब एक प्रतीक में बदल चुका है। ऐसा नहीं है कि भोपालवासी यह नहीं जानते कि,

तैतीस कोटी देवता मर गए, पड़ी काल की फांसी।

वे जानते हैं कि उनका संघर्ष संभवतः उन्हें स्वयं को न्याय नहीं दिलवा सके। लेकिन इसके परिणामस्व्रूप भारत व तीसरी दुनिया के अनेक देशों में जहर फैलाने वाले उद्योगों की स्थापना पर लगाम अवश्य लगी है।

आज यूनियन कार्बाइड या डाउ केमिकल्स को भारत में नया कारखाना लगाने में असफलता का सामना करना पड़ा है क्योंकि उनका पुराना ‘नाम’ और ‘काम’ आड़े आ रहा है। पुणे के निवासियों ने अपने शहर के पास डाउ केमिकल्स को कारखाना नहीं लगाने दिया। दरअसल भारतीय राजनीतिक तंत्र हमारी जनता की धैर्य की लगातार परीक्षा ले रहा है। स्थितियां बेकाबू होने पर वह विशेष सहायता पैकेज की घोषणा करता है। पिछले कुछ वर्षों में महाराष्ट्र में विदर्भ और मध्यप्रदेश में नर्मदा घाटी में ऐसे पैकेज भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुके हैं। इस क्रम में अब देश के नक्सल प्रभावित जिलों के लिए करोड़ो रुपए के विशेष सहायता पैकेज की घोषणा की गई है। इसका हश्र भी वहीं होना है।

भोपाल गैस पीड़ितों को भी लगातार भुलावे में रखकर रोज नई-नई घोषणाएं करना अर्थहीन है। भोपाल गैस त्रासदी को लेकर बरती जा रही लापरवाही अनजाने में नहीं हो रही है। यह एक घृणित प्रवृत्ति है जो कि उद्योगपतियों को यह दर्शा रही है कि उन्हें इस देश में कुछ भी करने की छूट है। इसी के समानांतर आम व्यक्ति को भी समझना होगा कि इस मामले में उसकी अरुचि स्वयं उसके लिए भी खतरनाक है। वैसे कबीर ने यह भी लिखा है,

मानुष तन पायौ बड़े भाग अब विचारी के खेलो फाग!

13.12.10

इंटरनेट रखता है बच्चों को शारीरिक गतिविधियों से दूर

नोएडा। इंटरनेट और कंप्यूटर गेम बच्चों को भोंदू बना रहे हैं. इससे बच्चे शारीरिक गतिविधियों से दूर हो रहे हैं और बीमारी की गिरफ्त में भी आ रहे हैं. अभिभावकों को चाहिए कि बच्चों की इंटरनेट से दूरी बनाएं और खेलों के प्रति उनमें रुझान बढ़ाएं.

शनिवार को सेक्टर-21 ए स्थित स्टेडियम में स्वयंसेवी संस्था क्राई के तत्वावधान में आयोजित 11वां ‘कॉरपोरेट सिटिजनशिप चैलैंज’ के उद्घाटन अवसर पर यह बात पूर्व टेस्ट क्रिकेटर चेतन चौहान ने कही. उद्घाटन के मौके पर नोएडा अथॉरिटी के चेयरमैन मोहिंदर सिंह और डीसीईओ एनपी सिंह भी उपस्थित थे. इन्होंने गुब्बारे उड़ाकर प्रतियोगिता का उद्घाटन किया.

दो दिवसीय कॉरपोरेट सिटिजनशिप चैलैंज खेल प्रतियोगिता के पहले दिन शनिवार को गोल्फ, टेबल टेनिस, बॉस्केट बॉल, मिनी मैराथन, बैड मिंटन, क्रिकेट समेत 16 कॉरपोरेट टीमों के बीच एक दर्जन खेल टूर्नामेंट हुए. रविवार अंतिम दिन खेलों के सेमीफाइनल और फाइनल टूर्नामेंट होंगे. क्राई की निदेशक योगिता वर्मा ने कहा कि "टूर्नामेंट से मिलने वाली आर्थिक मदद का इस्तेमाल उत्तर प्रदेश के गरीब बच्चों को पढ़ाने, कपड़े उपलब्ध कराने और उनकी मदद के लिए किया जाएगा."