24.2.10

सरकार बच्चों की गरीबी दूर करने के लिए निवेश करे

शिरीष खरे


मुम्बई। क्राई के मुताबिक सरकार को बच्चों की गरीबी दूर करने के लिर अधिक निवेश करने की जरूरत है। सरकारी तथ्यों के हवाले से 37.2% भारतीय गरीबी रेखा के नीचे हैं, जाहिर है कि देश में गरीबों की तादाद पहले से कहीं तेजी से बढ़ रही है। इससे यह भी जाहिर होता है कि पहले जितना सोचा जाता था, उससे कहीं ज्यादा बच्चे गरीबी और अभावों में जी रहे हैं।


ऐसे बच्चे जो गरीबी में पलते-बढ़ते हैं, वह अपने हर एक बुनियादी हक से भी अनजान रहते हैं। इस तबके के बच्चों में ही कुपोषण, असुरक्षित वातावरण, बीमारियां, अशिक्षा जैसी समस्याओं के पनपने की आशंकाएं रहती हैं। इसलिए इन वास्तविकताओं को ध्यान में रखते हुए ही बजट का आंवटन किया जाना चाहिए।

क्राई की सीईओ पूजा मारवाह कहती हैं कि ``क्राई का 6700 वंचित समुदायों में काम करने का तजुर्बा यह साफ करता है कि देश में गरीबी का आंकलन वास्तविकता से बहुत कम किया गया है। देशभर में काम करने के दौरान हमने पाया है कि बच्चों के लिए पोषित भोजन का संकट बढ़ रहा है, उनके लिए स्कूल और आवास की स्थितियां भी बिगड़ रही हैं। फिर भी तकनीकी तौर पर बहुत सारे बच्चे ऐसे हैं जो वंचित होते हुए भी गरीबी रेखा के ऊपर हैं। जब हम गरीबी को ही वास्तविकता से कम आंक रहे हैं, तो सरकारी योजनाओं और बजट में खामियां तो होगी ही। ऐसे में हालात पहले से ज्यादा मुश्किल होते जा रहे हैं।´´

क्राई के साथ ऐसे कई समुदाय जुड़े हुए हैं जिन्होंने अपने आजीविका के साधन खोए हैं, जैसे कि जंगलों पर निर्भर रहने वाले आदिवासी, भूमिहीन, छोटे किसान वगैरह। ऐसे लोगों के लिए लोक कल्याण की योजनाएं जीने का आधार देती हैं। पूजा मारवाह के मुताबिक ``हम इस बात पर ध्यान खींचना चाहते हैं कि बच्चों की गरीबी सिर्फ उनका आज ही खराब नहीं करता, बल्कि ऐसे बच्चे बड़े होकर भी हाशिये पर ही रह जाते हैं। सरकार को चाहिए कि वह देश में बच्चों की संख्या के हिसाब से, सार्वजनिक सेवाओं जैसे प्राथमिक उपचार केन्द्र, आंगनबाड़ी, स्कूल, राशन की दुकानों के लिए और अधिक पैसा खर्च करे।´´


सरकार हर साल केन्द्रीय बजट में बच्चों की बढ़ती संख्या के मुकाबले उनके खर्च में बढ़ोतरी करने की बजाय कटौती करती जा रही है। (देखे टेबल 1- केन्द्रीय बजट में बच्चों की विशेष योजनाओं पर होने वाले खर्च का ब्यौरा।)



विकसित अर्थव्यवस्था वाले देश जैसे यूएस, यूके, फ्रांस अपने राष्ट्रीय बजट का 6-7% हिस्सा शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं। जबकि अपने देश में 40 करोड़ बच्चों की शिक्षा पर राष्ट्रीय बजट का केवल 3% शिक्षा पर और 1% स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है। (देखे टेबल 2- शिक्षा और स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च का ब्यौरा : विकसित देशों के मुकाबले भारत की स्थिति।)



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भारत में बच्चों की स्थिति

• भारत में करीब 40% बस्तियों में प्राथमिक स्कूल नहीं हैं।

• भारत के आधे बच्चे प्राथमिक स्कूलों से दूर हैं।

• भारत के आधे बच्चे प्राथमिक स्कूलों से दूर हैं।

• भारत में 1.7 करोड़ बाल-मजदूर हैं।

• भारत में 5 साल से कम उम्र के 48% बच्चे सामान्य से कमजोर हैं।

• भारत के 77% लोग एक दिन में 20 रूपए से भी कम कमा पाते हैं।

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ऐसा देश जो कि आर्थिक विकास के रास्ते पर तेजी से बढ़ रहा है, वह अगर शिक्षा और स्वास्थ्य पर कम खर्च करेगा तो पिछड़ने लगेगा। क्राई और बच्चों के अधिकारों की वकालत करने वाली कई संस्थाओं की मांग है कि सरकार जीडीपी का १०% स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च करे। बुनियादी अधिकारों के लिए सार्वजनिक खर्च में बढ़ोतरी करना न सिर्फ एक अच्छी नीति है, बल्कि यह अर्थव्यवस्था के लिए भी फायदेमन्द है। एक शिक्षित और स्वस्थ भारत ही तो अर्थव्यवस्था को मजबूती दे सकता है।

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18.2.10

शिक्षा के अधिकार का छलावा लागू होगा

शिरीष खरे


संसद की हरी झण्डी मिलने के बाद, शिक्षा के अधिकार कानून को सरकार ने 1 अप्रैल से लागू करने के लिए हरी झण्डी दे दी है। क्या इससे देशवासियों की उम्मीदों को भी हरी झण्डी मिल पाएगी।

बीते साल, नई सरकार के मानव संसाधन विकास मन्त्री कपिल सिब्बल ने शिक्षा के अधिकार विधेयक को जब संसद के पटल पर रखा, तो उसकी कुछ खासियतों का खूब जोर-शौर से प्रचार-प्रसार किया। अब जबकि आम जनता के हाथों में यह कानून आने को है, सवाल है कि आम जनता द्वारा इस कानून का फायदा उठाया भी जा सकेगा, या नहीं।

जो परिवार गरीबी रेखा के नीचे बैठे हैं, उनके भविष्य की उम्मीद शिक्षा पर टिकी है, जो उन्हें स्थायी तौर पर सशक्त भी बन सकती है। सरकारी आकड़े कहते हैं कि 1 अरब से ज्यादा आबादी वाले भारत में 27.5: लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। इस देश में 70% लोग ऐसे हैं, जो हर रोज जितना कमाते हैं उससे बहुत मुश्किल से अपना गुजारा कर पाते हैं। इसी तबके के तकरीबन 20 करोड़ बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। इसलिए भारत में गरीबी और शिक्षा की बिगड़ती स्थितियों को देखते हुए, 2001 में एक संविधान संशोधन हुआ, जिसमें यह भी स्पष्ट हुआ कि सरकारी स्कूलों में सुधार के लिए राज्य और अधिक पैसा खर्च करेगी। मगर हुआ इसके ठीक उल्टा, राज्य ने गरीब बच्चों की जवाबदारी से बचने का रास्ता ढ़ूढ़ निकाला और सरकारी स्कूलों को सुधारने की बजाय गरीब बच्चों को प्राइवेट स्कूलों (२५% आरक्षण देकर) का रास्ता दिखाया। फिलहाल, राज्य सरकार एक बच्चे पर साल भर में करीब 2,500 रूपए खर्च करती है। अब खर्च की यह रकम राज्य सरकार प्राइवेट स्कूलों को देगी। मगर प्राइवेट स्कूलों की फीस तो साल भर में 2,500 रूपए से बहुत ज्यादा होती है। ऐसे में आशंका पनपती है कि प्राइवेट स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए अलग से नियम-कानून बनाए जा सकते हैं और उनके लिए सस्ते पैकेज वाली व्यवस्थाएं लागू हो सकती हैं। यह आशंका केवल कागजी नहीं है, बल्कि भोपाल में एक प्राइवेट स्कूल ने ऐसा कर दिखाया है। जाहिर है, सरकारी स्कूलों के गरीब बच्चे जब प्राइवेट स्कूलों में दाखिल होंगे तो उनके लिए आत्मविश्वास और ईज्जतदार तरीके से पढ़ पाना मुश्किल होगा। ऐसे में यह कह पाना भी फिलहाल मुश्किल होगा कि इन प्राइवेट स्कूलों में गरीब बच्चे कितने दिन टिक पांऐगे, मगर तब तक शिक्षा का यह `अधिकार´, `खैरात´ में जरूर तब्दील हो जाएगा। दूसरी तरफ, बीते लंबे समय से प्राइवेट स्कूलों की फीस पर लगाम कसने की मांग की जाती रही है। मगर शिक्षा का ऐसा कानून तो प्राइवेट स्कूलों को अपनी मनमर्जी से फीस वसूलने की छूट को जारी रख रहा है। इस तरह से एक समान शिक्षा व्यवस्था, जो कि आत्म-सम्मान की बुनियाद पर खड़ी है, उसके बुनियादी सिद्धान्त को ही तोड़ने-मरोड़ने का मसौदा तैयार हुआ है।

जब शिक्षा के अधिकार के लिए विधेयक तैयार किया जा रहा था तब सरकारी स्कूलों में बिजली, कम्प्यूटर और टेलीफोन लगाने की बात भी थी। जिसे बाद में कतर दिया गया। ऐसे तो सरकारी स्कूलों की दशा सुधरने की बजाय और बिगड़ेगी। सरकारी स्कूलों को तो पहले से ही इतना बिगाड़ा जा चुका है कि इनमें केवल गरीब बच्चे ही पढ़ते हैं।

फिर भी मिस्टर सिब्बल अगर कहते है कि प्राइवेट की साझेदारी से ही देश में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार आ सकता है, तो उनका यह तर्क ठीक नहीं लगता। वह भूल रहे हैं कि अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा तो भारतीय सरकार की मुख्य विशेषता रही है। तभी तो तमाम आईआईटी और आईआईएम से जो बड़े-बड़े इंजीनियर और प्रबंधक निकल रहे हैं, वो पूरी दुनिया में अपनी जगह बना रहे हैं। जबकि हम जानते है कि यह दोनों संस्थान सरकारी हैं। इसी तरह केन्द्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय के उदाहरण भी हमारे सामने हैं- जिनसे निकलने वाले बच्चे, बाद में देश के बड़े-बड़े नेता, प्रशासनिक अधिकारी, सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं से जुड़कर अच्छे जानकार साबित हुए हैं।

इसी तरह, शिक्षा का यह अधिकार केवल 6 से 14 साल तक के बच्चों के लिए है। जबकि हमारा संविधान 6 साल के नीचे के 17 करोड़ बच्चों को भी प्राथमिक शिक्षा, पूर्ण स्वास्थ्य और पोषित भोजन का अधिकार देता रहा है। अर्थात यह कानून तो शिक्षा के अधिकार के नाम पर संविधान में पहले से ही दर्ज अधिकारों को काट रहा है। दूसरी तरफ, 15 से 18 साल तक के बच्चों को भी कानून में जगह नहीं दे रहा है। वैश्विक स्तर पर बचपन की सीमा 18 साल तक रखी गई है, जबकि अपनी सरकार बचपन को लेकर अलग-अलग परिभाषाओं और आयु-वर्गों में विभाजित है। इन सबके बावजूद वह 18 साल तक के बच्चों से काम नहीं करवाने के सिद्धान्त पर चलने का दावा करती है। मगर जब उस सिद्धान्त को कानून या नीति में शामिल करने की बारी आती है, वह पीछे हट जाती है। अगर कक्षाओं के हिसाब से देखे, तो यह अधिकार कम से कम पहली और ज्यादा से ज्यादा आठवीं तक के बच्चों के लिए है। अर्थात जहां यह आंगनबाड़ी जाने वाले बच्चों को छोड़ रहा है, वहीं बच्चों को तकनीकी और उच्च शिक्षा का मौका भी नहीं दे रहा है। क्येंकि आमतौर से तकनीकी पाठयक्रम बारहवीं के बाद से ही शुरू होते हैं, मगर यह कानून तो उन्हें केवल साक्षर बनाकर छोड देने भर के लिए है। कुलमिलाकर, शिक्षा के अधिकार का यह कानून न तो `सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार´ देता है, न ही पूर्ण शिक्षा की गांरटी ही देता है।

दुनिया का कोई भी देश सरकारी स्कूलों को सहायता दिए बगैर सार्वभौमिक शिक्षा का लक्ष्य नहीं पा सकता है। विकसित अर्थव्यवस्था वाले देश जैसे यूएस, यूके, फ्रांस अपने राष्ट्रीय बजट का 6-7% हिस्सा शिक्षा पर खर्च करते हैं। जबकि अपने देश में 40 करोड़ बच्चों की शिक्षा पर राष्ट्रीय बजट का केवल 3% हिस्सा ही खर्च किया जाता है। जबकि देश की करीब 40% बस्तियों में प्राथमिक स्कूल नहीं हैं। जबकि देश के आधे बच्चे प्राथमिक स्कूलों से दूर हैं। जबकि देश में 1.7 करोड़ बाल-मजदूर हैं। जबकि यह देश 2015 तक स्कूली शिक्षा का लक्ष्य पूरा करने की हालत में भी नहीं हैं। ऐसे में तो हमारी सरकार को बच्चों की शिक्षा में और ज्यादा खर्च करना चाहिए। मगर वह तो केन्द्रीय बजट (2009-10) से `सर्व शिक्षा अभियान´ और `मिड डे मिल´ जैसी योजनाओं को ही दरकिनार करने पर तुली है।

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10.2.10

पत्थरों की खदानों से लौटा बचपन

कभी बाल मजदूरी करने वाला महेन्द्र अब बच्चों के अधिकारों से जुड़ी कई लड़ाईयों का नायक है। महेन्द्र के कामों से जाहिर होता है कि छोटी सी उम्र में मिला एक छोटा सा मौका भी किसी बच्चे की जिंदगी को किस हद तक बदल सकता है।

महेन्द्र रजक, इलाहाबाद जिले के गीन्ज गांव से है- जहां की भंयकर गरीबी अक्सर ऐसे बच्चों को पत्थरों की खदानों की तरफ धकेलती है। महेन्द्र रजक भी अपनी उम्र से कुछ ज्यादा ही बड़ा हो चुका था। इतना बड़ा कि 6 साल की दहलीज पार करके उसने खदानों में जाने का मतलब का जाना था। इतना बड़ा कि 6 दूनी 12, 12 दूनी 24, 24 दूनी 48 जानने की बजाय उसने हमउम्र बच्चों के साथ पत्थर तोड़ने का पहाड़ा जाना था।

‘‘....तब कुछ बच्चों को स्कूल जाते देखते तो लगता कि वो हमारे जैसे नहीं हैं, वो हमसे कहीं अच्छे हैं।’’- अपने बचपने को इस तरह याद करने वाला महेन्द्र अब 16 की उम्र छूने को है। वह बताता है ‘‘मेरे लिए पत्थर तोड़ना तो बहुत मेहनत का काम था। सुबह 7 से शाम के 5 तक, तोड़ते रहो, खाने के लिए घंटेभर की छुट्टी भी नहीं मिलती थी। ठेकेदार आराम नहीं करने देता था, बार-बार पैसे काटने की धमकी अलग देता था।’’ इस तरह महेन्द्र को घर, मैदान और स्कूल से दूर, 9 घंटे के काम के बदले 70 रूपए/रोज मिलते थे।

संचेतना, जो कि क्राई के सहयोग से चलने वाली एक गैर-सरकारी संस्था है, ने जब महेन्द्र के गांव में अनौपचारिक शिक्षण केन्द्र खोला तो जैसे-तैसे करके महेन्द्र के पिता उसे पढ़ाने-लिखाने को राजी हुए। वैसे तो यहां एक प्राइवेट नर्सरी स्कूल भी था, जो बहुत मंहगा होने के चलते महेन्द्र जैसे ज्यादातर पिताओं की पहुंच से बहुत दूर था।

क्राई के पंकज मेहता बीते दिनों को कुछ ताजा करते हैं ‘‘हमारे सामने पत्थर तोड़ने वाले बहुत सारे बच्चे थे, उनके बचपन को बचाने के लिए हमने बस्तियों के पास सरकारी स्कूल खोले जाने का अभियान चलाया। इसके लिए राज्य की शिक्षा व्यवस्था से जुड़े कई बड़े अधिकारियों से मिले-जुले, उनके साथ बैठे-उठे, उनके सामने बार-बार अपनी जरूरतें दोहराते रहे। आखिरकार, 2002 को गीन्ज गांव में भी एक प्राथमिक स्कूल खोला जा सका।’’

संचेतना के सामाजिक कार्यकर्ताओं बताते हैं कि स्कूल भवन तो खड़ा कर दिया था, मगर इसी से तो सबकुछ सुलझने वाला नहीं था। असली चुनौती ऐसे बच्चों को स्कूल तक लाने और उनमें शिक्षा की समझ जगाने की थी। यह बहुत दिक्कत वाली बात थी, क्योंकि यहां बच्चों को कमाने वाले सदस्य के तौर पर देखने का चलन जो था। गरीब मां-बाप की जुबान पर यही सवाल होता था कि चलिए आप कहते हैं तो हम अपने बच्चों को आज काम पर नहीं भेजते हैं, अब आप बताइए कल से गृहस्थी की गाड़ी कैसे चलेगी ? इस बुनियादी सवाल से जूझना आसान न था। इसलिए सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपनी पूरी ताकत महेन्द्र जैसे बच्चों के परिवार वालों के बीच आपसी समझ बनाने में लगाई थी। उन्होंने स्कूल के रास्ते पर बच्चों को रोकने वाले कारणों को भी समझा और यह भी समझाया कि बच्चों के भविष्य के लिए इतना तो खर्च किया ही जा सकता है!! क्योंकि महेन्द्र का बड़ा भाई भी काम पर जाता था, इसलिए उसके पिता अपने इस छोटे बेटे को काम की बजाय स्कूल भेजने के लिए तैयार हो गए।’’ इस तरह 9 साल की उम्र से महेन्द्र के स्कूल वाले दिन शुरू हुए।

‘‘अब मैं बाल पंचायत का नेता हूं, पंचायत के बच्चों ने मुझे चुनकर यहां तक भेजा है’’- महेन्द्र के लहजे के ये जवाबदारी भरे अंदाज हैं : ‘‘गांव में ऐसा क्या चल रहा है, जो हमें आगे बढ़ने से रोक रहा है, ऐसी बातों पर बतियाते हैं। अगर किसी बात को लेकर, कुछ हो सकता है तो बाल पंचायत उसमें क्या कर सकती हैं, कैसे कर सकती है, ऐसी चर्चाएं चलती हैं, कभी-कभी किसी बात पर हम सारे बच्चे गांव वालों के साथ हो जाते हैं, जरूरत पड़े तो जिले के अधिकारियों से भी मिल आते हैं।’’ बाल पंचायत का कोई औपचारिक ढ़ांचा नहीं है, यह तो अपनी आपसी सहूलियतों को देखते हुए कहीं भी, किसी भी समय लग सकती है। गांव के सारे बच्चे इसके सदस्य हैं, जो अपने अधिकारों से जुड़े अभियानों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।

11 दिसम्बर, 2009 को, नई दिल्ली में सबको शिक्षा समान शिक्षा अभियान के मौके पर, जब महेन्द्र ने देशभर से जुटे एक हजार से भी ज्यादा सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच अपने अनुभवों को साझा किया तो सभी ने इस छोटे से नायक के बड़े कामों को जाना और उसकी चौतरफा सरहना की।

गीन्ज गांव में बच्चे-बच्चे को बाल पंचायत बनने का किस्सा मालूम है। हुआ यह कि- तब बहुत सारे बच्चों ने गांव में खेल के मैदान का मुद्दा उठाया था। इसके लिए उन्होंने बाल दिवस पर इलाहाबाद जाने का मन बनाया। यह बच्चे उस रोज इलाहाबाद की मुख्य सड़कों पर पहुंचे और जमकर खेले। ‘‘यह देख वहां के बहुत सारे लोग आ गए, गुस्से से बोले कि यहां के रास्ते क्यों रोक रहे हो ?’’- तब महेन्द्र ने कहा था - ‘‘यह तो पण्डित नेहरू का शहर है, आज तो बाल दिवस है, आज तो हमें यहां खेलने दो।’’ लगे हाथ उसने यह भी कह दिया कि ‘‘हमारे गांव में तो खेल का मैदान भी नहीं है। यहां तो देखो कितनी चौड़ी-चौड़ी सड़के हैं।’’ उस रोज बच्चों ने विरोध की ऐसी गेंदबाजी की थी कि प्रशासन से जुड़े अधिकारियों को क्लीन बोल्ड होना पड़ा था। मैच का नतीजा यह निकला था कि इलाहाबाद जिले से ही गीन्ज गांव के लिए खेल के मैदान का रास्ता साफ हो गया। खेल-खेल से शुरू हुए बच्चों के ऐसे अभियान समय के साथ गंभीर होते चले गए। फिर बच्चों को यह भी लगा कि अगर गांव के बड़े-बूढ़े की पंचायत हो सकती है तो बच्चों की भी अपनी पंचायत हो सकती है। कुछ इस तरह से बाल पंचायत का वजूद खड़ा हुआ। जो गीन्ज जैसे एक साधारण गांव में, गांव भर के सहयोग के चलते अब बहुत खास बन चुकी है।

महेन्द्र और उसके नन्हें दोस्तों के हिस्से में अब ऐसे दर्जनों किस्से हैं, जो बताते हैं कि बड़े कारनामों को अंजाम तक पहुंचाने के लिए, उतनी बड़ी उम्र भी हो तो ऐसा जरूरी नहीं है। जैसे कि पहले गीन्ज गांव में पांचवीं तक ही स्कूल था। लिहाजा महेन्द्र जैसे बच्चों के लिए आगे पढ़ने का मतलब था कि पहले तो एक साईकिल की जुगाड़ करो, उसके बाद उससे रोजाना 6 किलोमीटर दूर के स्कूल आओ-जाओ। तब बाल पंचायत ने जिले के शिक्षा अधिकारियों के साथ बैठक आयोजित की थी। बाल पंचायत ने इन अधिकारियों के सामने अपने गांव में ही एक सेकेण्डरी स्कूल खोले जाने की वकालत की थी। तब महेन्द्र ने कहा था- ‘‘अगर ऐसा हुआ तो यहां के बहुत सारे बच्चे आगे भी पढ़ सकते हैं।’’ आखिरकार, यहां सेकेण्डरी स्कूल भी खोला गया, जहां आज पास वाले गांवों के भी बहुत सारे बच्चे पढ़ने आते हैं। अगर यह कहा जाए कि यहां के बच्चों ने हर परेशानी का हल खोज लिया है तो यह सही नहीं होगा। मगर यह तो है कि उन्होंने अपने हालातों को पहले से कहीं बेहतर बनाया है। यही वजह है कि जो कामकाजी बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं वो संस्थाओं द्वारा खोले गए गैर-औपचारिक शिक्षण केन्द्रों में पढ़ने आते हैं। यहां ऐसे बच्चों की भारी तादाद यह बताती है कि पत्थर तोड़ने के काम से टूट जाने के बावजूद इनके दिलोदिमाग में पढ़ने की ललक कितनी बकाया है। यहां बैठे-उठे कभी पहाड़ा तो कभी बारहखड़ी पढ़ते ये बच्चे दुनिया में जीने की समझ बढ़ाने के लिए यहां आते हैं। दूसरी तरफ यहां सक्रिय गैर-सरकारी संस्थाओं ने ऐसे गरीब परिवारों की आमदनी में सुधार लाने के लिए उन्हें राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना के फायदे उठाने के लिए भी संगठित किया है। यह लोग अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अब पंचायत की दूसरी योजनाओं से भी जुड़ रहे हैं।

यह कोई तीन हजार आबादी वाले गीन्ज से महेन्द्र के छोटे से गांव का हाल है, जहां बेहतर जीने के लिए लड़ने और लड़ने के लिए पढ़ने के महत्व का पता चला है। मगर महेन्द्र का गांव उसी दुनिया का हिस्सा है, जिसमें सबसे ज्यादा बाल मजदूर भारत के हैं। सरकारी आकड़ों के हिसाब से यहां 14 साल तक के 1 करोड़, 70 लाख बाल मजदूर हैं। इसमें भी 80% बाल मजदूर खेती या कारखानों में लगे हैं। बाकी के पत्थरों की खदानों, चाय के बागानों, ढ़ाबों, दुकानों या घरेलू कामों से जुड़े हैं। बच्चों से मजदूरी कराने वाले ऐसे कई गिरोह सक्रिय हैं जो उन्हें या तो सस्ती मजदूरी या फिर तस्करी के चलते काम की जगहों तक लाते हैं।

क्राई अपने 30 सालों के तजुर्बों से यह मानता है कि बच्चों की समस्या के जो तार उनके समुदाय से जुड़े हैं, जब तक उनकी पहचान नहीं की जाएगी, जब तक उनकी रोकधाम के उपाय नहीं ढ़ूढ़े जाएंगे, तब तक बाल मजदूरी के हालातों में स्थायी बदलाव नहीं आएगा। असल बात तो यह है कि बाल मजदूरी की जड़े भूख, गरीबी, शोषण, बेकारी और अत्याचारों से जुड़ी हैं। अगर बाल मजदूरी से लड़ना है तो सबसे पहले बच्चों की शिक्षा और बड़ों की आजीविका से ताल्लुक रखने वाली सरकारी नीतियों को प्रभावित करना होगा। इसके सामानान्तर ऐसी नीतियों को जमीनी हकीकत में साकार करने की जद्दोजहद को भी जारी रखना होगा।

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5.2.10

चेन्या के बदलाव के चित्र

शिरीष खरे



‘‘मुंबई तेरी फुटपाथ पर/अनगिनत काम करते ये बच्चे/रात और दिन पसीना बहाते हुए/दौड़ते, भागते/ठहरते, हांफते/फिर भी हंसते हुए/मुसकुराते हुए/रंगीन गुब्बारे या प्लास्टिक की गाड़ी/फिल्मी अखबार या रेल की चौपड़ी/कंघियां काली और लाल, छोटी बड़ी/बच्चे कहने को सामान यह लाए हैं/सच तो यह है कि खुद बिकने को आए हैं।’’

‘मुंबई तेरी फुटपाथ पर’- जावेद अख्तर की इस कविता के उलट, एक बच्चा ऐसा भी है, जो तंग झोपड़पट्टियों और बंद गलियों से पढ़ते हुए, अपने पैरों से चार कदम आगे चलते हुए, कागजों पर नए-नए चित्रों को गढ़ता है। जहां दूसरे बच्चे, गलियों जैसे मोड़ों या मोड़ों जैसी गलियों से गुजरते हुए- गाड़ियों के कई-कई शीशों को धोते हैं, उम्र के मुकाबले ढ़ेरों जख्मों को सहते हैं, वहीं से अपने सीने में जख्मों की बजाय ढ़ेरों मेडल लटकाए, देखो चेन्या नाम का यह बच्चा भी आया है।

चेन्या मुंबई के उस इलाके से है, जिसमें रोज-रोज की छोटी-छोटी ख्वाहिशों की सांसे इन दिनों कुछ ज्यादा ही फूलने लगी हैं- यहां की <5 झोपड़पट्टियों में> <5000 से ज्यादा झोपड़ियों के> <35000 से ज्यादा लोगों> और <उनके बीच 15000 से भी ज्यादा बच्चे> रहते हैं। इतने बड़े और घने हिस्से में <केवल 7 आंगनबाड़ियां> हैं। यानि औसतन <715 झोपड़ियों की> <7000 से ज्यादा आबादी के बीच> <2000 से भी ज्यादा बच्चों> के हिस्से में <केवल 1 आंगनबाड़ी> है। इसके अलावा <बाम्बे महानगर पालिका का 1 स्कूल> है भी तो यहां से <3 किलोमीटर दूर>। मुंबई की ज्यादातर झोपड़पट्टियों में ऐसा ही असंतुलन है। चेन्या मुंबई के उस इलाके से है, जिसमें बच्चों के माता-पिताओं का हाल यह है कि उन्हें <हर रोज खाने के लिए हर रोज काम मिल ही जाए-ऐसा जरूरी नहीं>। ऐसे में <परिवार के गुजारे के लिए बच्चों को काम पर भेजना> जरुरी मान लिया जाता है। इसलिए यहां चेन्या जैसे बच्चों को बेहतर शिक्षा की सहूलियतें पाने के लिए पथरीले रास्तों से गुजरना पड़ता है। कुल मिलाकर एक तरफ <गहरी नींद में डूबी व्यवस्था> है, तो दूसरी तरफ है <गृहस्थी ढ़ोने की भारी जवाबदारी>- और इन दोनों हालातों के बीच बचा है <चेन्या जैसे बच्चे का बचपन>। जो बेवजह खो जाने की बजाय <इंजीनियर बनने का ख्वाब> लिए है, यहां के लिए यह ख्वाब <साधारण नहीं> है।

वैसे तो देश के करोड़ों बच्चों की तरह चेन्या के भी स्कूल जाने में कुछ खासियत नजर नहीं आती। मगर यहां से स्कूल के रास्ते रोकने वाली ताकतों के मजबूत गठजोड़ को देखते हुए चेन्या का स्कूल जाना असाधारण लगता है। 11 साल का चेन्या फिलहाल कक्षा 3 में है। यह वाशीनाका झोपड़पट्टी के बंजारटंडा, भरतनगर में रहता है। यहां से 3 किलोमीटर दूर- नेशनल केमीकल फर्टीलाइजर कालोनी के कैंपस में बाम्बे महानगर पालिका का स्कूल है। इसलिए चेन्या स्कूल आने-जाने के लिए रोजाना कम से कम 6 किलोमीटर का रास्ता पैदल ही पार करता है। उसके परिवार में उसके माता-पिता के अलावा एक बड़ा भाई भी है। उसके माता-पिता दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, जो हमेशा से अनिश्चिताओं पर टिकी होती है। चेन्या का बड़ा भाई अभी 13 साल का ही है, उसके नन्हें कंधों पर परिवार का आर्थिक बोझा है, जिसे उठाने के लिए उसे पास के रेस्टोरेंट में जाना पड़ता है। उसके चेहरे पर, चेन्या के चेहरे की तरह न तो सुकून झलकता है, न जुनून। 10 साल पहले, यह परिवार रोजीरोटी के चलते कर्नाटक के छोटे से गांव गुलबर्गा से मुंबई आया था।



चेन्या के आजकल
चेन्या के भीतर सुंदर संदेश देने वाले बहुत सुंदर-सुंदर चित्रों को बनाने की बेजोड़ कला है। बीते 2 सालों में उसने बहुत सारी इंटर स्कूल प्रतियोगिताओं में भागीदारी करके बहुत सारे पुरस्कार और मेडल पाए हैं। इस साल भी उसने इंटर स्कूल प्रतियोगिताओं में भागीदारी करते हुए 3 पुरस्कार पा लिए हैं। उसके शिक्षकों का कहना है कि चेन्या के भीतर चित्रकला की ही तरह पढ़ने-लिखने की भी खूब लगन है। इस स्कूल का वह एक अच्छा और होनहार छात्र है।

चेन्या के ज्यादातर चित्रों में उसके आसपास की दुनिया के दृश्यों के साथ-साथ कल्पना के पुट भी दिखाई देते हैं- जैसे घर के चित्र को ही लो तो ज्यादातर बच्चे घपड़ों की छत और घासपूस की दीवारों वाला ऐसा घर बनाते हैं जो गांव से दूर एक पहाड़ी पर होता है, जिसके आसपास कोई दूसरा घर होने की बजाय एक नदी, एक जंगल, एक मंदिर, एक सड़क और सूरज का नजारा मिलता है। जबकि चेन्या अपने झोपड़े और उसके आसपास की पट्टी को हू-ब-हू उभार देता है। ऐसा करते हुए वह अपनी कल्पना के घोड़े को दौड़ाता है और कुछ दृश्यों को अनुपात से बड़ा, तो कुछ दृश्यों को अनुपात से छोटा कर देता है, जैसे कि एक जगह पर रेड लाईट से टकराता चांद, लगता है मानो दोनों के बीच किसी बात को लेकर धक्कामुक्की चल रही हो। चेन्या के चित्रों में शहरी सभ्यता का हर रुप और उसमें शामिल चीजें जैसे ऊंची ईमारतें, मोटर, कार, रेल, हवाईजहाज, सिनेमाहाल, होर्डिंग्स, लाइटिंग, ट्राफिक और भीड़ दिखाई तो देती हैं, मगर जब वह अपनी रचनात्मकता से ऐसी चीजों के आकार या आकृतियों को बदलता है तो लगता है कि उनमें कोई गहरे भाव छिपे हैं। उसे अपने हुनर में रंगों की भी अच्छी मिलावट करना आता है। तेजी से चित्र बनाने वाले चेन्या के नन्हें हाथों को देखकर सुखद आश्चर्य होता है।

चेन्या के चित्रों की और एक खासियत है- उनमें कई बार तरह-तरह की मशीनें दिखाई देती हैं। दिलचस्प यह भी है कि वो ऐसी मशीनों के चित्र बनाते वक्त उनमें अपने हिसाब से कुछ जोड़ता-घटाता है। वह कहता है कि बड़ा होकर मशीनों का इंजीनियर बनना चाहता है। वह घर की गरीबी दूर करने और अपने दोस्तों की मदद करने की बात भी कहता है। फिलहाल चेन्या के गालों पर पड़ती मुसकुराहट से उदासी और अंधरे किनारे लगते हैं। यहां के लिए वह हकीकत के पंखों पर सवार एक सपना जैसा है, जो आजकल बार-बार अपने पंख फड़फड़ाने को बेताब रहता है।


चेन्या जैसे दोस्तों के लिए
चेन्या के पीछे छिपे कलाकार को सामने लाने और उसे लगातार बढ़ावा देने के लिए ‘समता मित्र मंडल’ और ‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ जैसी संस्थाओं ने भरपूर साथ दिया है। यह दोनों संस्थाएं मिलकर- यहां की 3 झोपड़पट्टियों में, बच्चों के अधिकार और उन्हें प्रभावित करने वाले मानवीय अधिकारों के लिए काम करती हैं। इन संस्थाओं ने ऐसे इलाकों में ‘बाल सक्ष्म केन्द्र’ तैयार किए हैं, यहां बच्चों को पढ़ने-लिखने का मौका देने और विभिन्न कलाओं मे उनकी दिलचस्पियों को प्रोत्साहित किया जाता है। यहां चेन्या जैसे ही कई दोस्तों में बदलाव लाने के लिए उनकी पसंदगी/नापसंदगी और ताकत/कमजोरियों के बारे में पूछा जाता है। यहां बच्चे, उनके परिवार वाले और शिक्षक एक साथ बैठकर- आपसी समस्याओं पर चर्चा करते हैं। यहां से ही बड़ी तादाद में बस्ती के बच्चों को बाम्बे महानगर पालिका के स्कूल में दाखिल करवाने का अभियान चलाया जा रहा है।

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2.2.10

12 साल में 2 लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हैं

किसान आत्महत्याओं के मामले में सबसे आगे है महाराष्ट्र


राष्ट्रीय अपराध लेखा ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 1997 से अबतक कुल 1,99,132 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। जबकि 2008 में 16,196 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं।

जाने माने पत्रकार पी साईनाथ ने ‘द हिंदू’ में प्रकाशित अपने लेख में भी यह खुलासा किया है कि 2008 में 5 बड़े राज्यों-महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जिन्हें ‘आत्महत्या-क्षेत्र’ कहा जाता है, में सबसे ज्यादा 10,797 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। यानि 2008 में देश भर से जिन 16,196 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं, उसका 66.7 प्रतिशत हिस्सा अकेले ‘आत्महत्या-क्षेत्र’ से है। इसमें भी महाराष्ट्र सबसे आगे है, जहां 3,802 किसानों ने मौत को गले लगाया हैं। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 1997 से अब तक 41,404 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। यह देशभर में हुई कुल किसान आत्महत्याओं की संख्या का 1/5वां से अधिक भाग है।

राष्ट्रीय अपराध लेखा ब्यूरो की यह रिपोर्ट कहती है कि 1997 से 2002 के बीच ‘आत्महत्या-क्षेत्र’ से 55,769 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। जबकि 2003 से 2008 के बीच यह आकड़ा 67,054 तक पहुंच गया। जिसमें किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं में औसतन सलाना 1,900 की बढ़ोतरी दर्ज हुई। सालाना औसत के मद्देनजर 2003 से हर 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है। यह रिपोर्ट कहती है कि हालांकि 2007 के मुकाबले आत्महत्याओं में थोड़ी कमी तो आई है, मगर कोई उल्लेखनीय बदलाव दिखाई नहीं देता है।

मद्रास इंस्टीट्यूट आफ डेवलपमेंट स्टडीज से जुड़े रहे जानेमाने अर्थशास्त्री प्रोफेसर के नागराज कहते हैं कि ‘‘अगर 2008 में 70,000 करोड़ रुपए के कर्ज की माफी और खेती के लिए दी जाने वाली सहायता के बाद यह हालात है तो सूखाग्रस्त 2009 के बाद के हालात तो और भी भयावह हो सकते हैं। कुल मिलाकर किसानों की यह समस्या बेहद गंभीर हो चुकी है।’’

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