शिरीष खरे
1991 के बाद जैसे ही उदारीकरण के नाम पर बाजार खुला वैसे ही मीडिया भी एक बड़े बाजार में बदला। पिछले एक दशक से अब तक के बदलते परिदृश्यों पर गौर किया जाए तो इसमें एक ‘विरोधाभाषी पहलू’ नजर आता है। एक तरफ मीडिया का बाजार बढ़ने की बातें चलती हैं और दूसरी तरफ गाँव में प्रिंट या इलेक्ट्रानिक मीडिया की पहुँच सीमित बनी हुई है। प्रिंट मीडिया के नजरिए से इसका खास कारण अशिक्षा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिहाज से बिजली और संचार की खराब व्यवस्था। फिर ऐसे इलाकों में कुशल संवाददाता और पत्रकारों की तादाद भी कम ही रहती है। शहर में केरियर की नई संभावनाएं होने से योग्य मीडियाकर्मी गाँव में काम नही करना चाहते हैं। ग्रामीण पत्रकारिता में विशेषज्ञों की कमी बरकरार है। इन सुदूर इलाकों से मिलने वाली ज्यादातर सूचनाएं स्ट्रिंगरों द्वारा भेजी जाती हैं। यह अलग-अलग समाचार माध्यमों के लिए अस्थायी और आंशिक तौर पर तैनात होते हैं। आमतौर पर उनसे बेहतरीन रिपोर्टिंग की उम्मीद नहीं की जाती है।
इसी तरह कई लम्बी लड़ाईयों के बाद सूचना का जो हक हासिल हुआ है, ज्यादातर ग्रामीण अज भी उसका उपयोग नहीं जान पाए हैं। बहुत कम जानकार अपने धैर्य और विवेक की परीक्षा देकर इस कानून का फायदा उठा पाते हैं। कुछेक खास और गुप्त सूचनाएँ मीडिया से ही मिलती हैं। इसलिए इन ग्रामीण इलाकों के लिए मीडिया से दूरी का अर्थ है- जनहित की सूचनाओं से बेदखली।
प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और सूचना का हक जैसे माध्यम गाँव तक बेअसर हो रहे हैं। इन्हें असरदार बनाने के उपायों पर सोचा जा रहा है। साथ ही बाजार के सामानान्तर दूसरे माध्यमों को भी खड़ा किया जा रहा हैं। इनमें रेडियो की भूमिका सशक्त बतलाते हुए सामुदायिक रेडियो पर जोर दिया गया है। इसके कई कारण भी हैं जैसे-बिजली की समस्या से निजात मिलना और रेडियो का हल्का, गतिशील, सस्ता तथा सरल उपकरण होना। फिर रेडियो कई दशकों से भारतीय जनता के दिल से जुड़ा रहा है। इसमें दोतरफा संवादों की पंरपरा भी बढ़ गई है। रेडिया पर फोन कर या स्टेशन पर खत भेजकर गाँव के लोग अपनी बात विशेषज्ञ, अधिकारी, नेता, मंत्री आदि किसी से भी कहते-सुनते रहे हैं।
समुदाय के इन्हीं हितों को ध्यान में रखकर सामुदायिक रेडियो की अवधारणा और योजना बनायी गई। सरकार या प्रशासन की मुख्य समस्या गाँव-गाँव जुड़ने की है और इस दिशा में सामुदायिक रेडियो योगदान दे सकता है। इसके लिए उसके पास स्थानीय बोली, साधन, लोग और समर्थन भी है। ऐसा कहा जाता है कि सामुदायिक रेडियो का मकसद ग्रामीण जनता की आवश्यकता, प्राथमिकता, समस्या, सुझाव और समाधान से होना चाहिए। लेकिन आज उसे केवल मंनोरजंन तक सीमित बनाया जा रहा है। ताज्जुब कि बात है कि सामुदायिक रेडियो के नाम पर ऐसी कई गतिविधियाँ बगैर समुदायिक सहयोग से चल रही हैं। मीडिया के दूसरे रुपों की तरह इसमें भी विकृfतयाँ दिखाई देने लगी हैं। सामुदायिक रेडियो में समुदाय की भागीदारी को नजरअंदाज बनाना सबसे खतरनाक है।
मीडिया के नए बाजार में सेटेलाईट और दृश्य रेडियो के साथ-साथ अब सामुदायिक रेडियो भी शामिल हो चुका है। इन दिनों रेडियो बाजार पर बड़े-बड़े व्यापारियों की नजर लगी हुई है। इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश के लिए मीडिया घरानों आगे आ रहे हैं। ऐसे में सामुदायिक रेडियो के नाम पर एफएम को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
शुरूआती रूझानों से मालूम होता है कि एफएम रेडियो के ज्यादातर लाइसेंस प्राइवेट सेक्टर के चंद मीडिया घरानों को ही दिये गए हैं। बीते साल तक, सरकार ने एफएम चैनल चलाने के लिए अलग-अलग राज्यों के लगभग 100 शहरों में कंपनियों को 350 के आसपास लाइसेंस बांटे हैं। पिछले कुछेक सालों में ही (तथाकथित) सामुदायिक रेडियो की संभावनाएं बढ़ी हैं और उसी अनुपात में संख्या भी। जहाँ तक सामुदायिक रेडियो की बात है उसके लाइसेंस कुछेक बड़े संस्थानों की झोली में गए हैं और सामुदायिक रेडियो के संचालन में छोटे समूहों की प्रभावपूर्ण हिस्सेदारी नहीं बन पा रही है।
रेडिया के इस कारोबार में विशालकाय विदेशी कंपनियाँ अपना अधिकार स्थापित करने के लिए उतावली हैं। उदारीकरण की नीति के मुताबिक यह बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए सरकार पर दवाब बना सकती हैं। इसके लिए पहले स्तर का दवाब इस क्षेत्र से संबंधित नीति, योजना और कानूनों पर होगा। अगर यह दवाब असर करता है तो रेडियो का बाजार ज्यों-ज्यों बढ़ेगा, त्यों-त्यों विशाल कंपनियों की हिस्सेदारी भी बढ़ती जाएगी।
रेडियो का नया बाजार और उस पर पश्चिमी व्यावसायिकता की पहचान होने लगी है। आजकल भारतीय श्रोता अनेक विदेशी प्रसारण एंजेसियों से निकटता भी रख रहे हैं, जैसे-बीबीसी, वायस आफ अमेरिका, रेडियो जर्मन वगैरह। देश की जनता केवल आकाशवाणी तक सीमित नही रही। रेडियो में भी कार्यक्रमों की संख्या और प्रतिस्पर्धा बढ़ने से यहाँ ‘सबसे पहले’ या ‘सबसे तेज’ की दौड़ नजर आने लगी है। कई कंपनियाँ रेडियो आवार्ड कार्यक्रम को लोकप्रिय बनाने में लग गए हैं। आज भारत में विज्ञापन पर होने वाले कुल खर्च का 2% सिर्फ रेडियो में दिए जाने वाले विज्ञापन का हिस्सा है। कल रेडियो विज्ञापन का नया और सशक्त उपकरण बन जाएगा। मगर सामुदायिक रेडियो को शुरू करने की मूलभूत जरूरत और अवधारणा का हमेशा के लिए अंत हो जाएगा।
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संपर्क : shirish2410@gmail.com
1 टिप्पणी:
सामुदायिक रेडियो को लेकर आपने बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है। इस तरह के आलेख की नेट पर बहुत कमी है। एक तरह से कहें तो आपने इस पोस्ट के जरिए उस कमी को दूर करने की कोशिश की है। धन्यवाद।
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