रहमत भाई
वरिष्ट पत्रकार श्री प्रभाष जोशी का निधन न सिर्फ पत्रकारिता बल्कि देश के जनसंगठनों के लिए भी अपूरणीय क्षति है। ऊनके निधन से दोनों ही स्थानों पर निर्वात महसूस किया जा रहा है।
श्री जोशी देशभर के सामाजिक समूहों से न सिर्फ जुड़े रहे हैं बल्कि उन्होंने ऐसे समूहों में सक्रिय भागीदारी भी की है। ऊन्होंने देश के किसानों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और वंचित वर्गों के मुद्दे न सिर्फ अपनी लेखनी के माध्यम से उठाये बल्कि वे उनसे करीब से जुड़े भी रहें हैं। ऐसे ही समूहों में नर्मदा बचाओ आंदोलन भी शामिल है।
बात 1994 के जाड़े की है। झाबुआ (मध्यप्रदेश) जिला प्रशासन ने सरदार सरोवर बाँध प्रभावित आदिवासियों को नीति अनुसार जमीन दिए बगैर उन्हें उनके गॉंवों से खदेड़ने हेतु दमनचक्र चलाया था। झाबुआ जिले के तत्कालीन कुख्यात कलेक्टर श्री राधेश्याम जुलानिया के नेतृत्व में जिला प्रशासन लोगों को उनकी इच्छा के विरुध्द गॉंव से हटने के लिए के लिए मजबूर कर रहा था। उन पर फर्जी मुकद्दमें दायर कर लोगों की हिम्मत तोड़ने का षड़यंत्र जारी था। स्थानीय मीडिया भी इस मामले को अपेक्षित कवरेज नहीं दे रहा था उन दिनों श्री जोशी डूब प्रभावित गॉंव आंजणवारा गॉंव तक पैदल चल कर गए तथा लोगों को हिम्मत दी। याद रहे आंजणवारा झाबुआ जिले के उन पहुँचविहीन गॉंवों में से एक है जहाँ आजादी के 60 वर्ष बाद भी आज तक विधानसभा अथवा लोकसभा चुनाव का प्रचार करने किसी भी राष्ट्रीय राजनैतिक दल का कोई कार्यकर्ता नहीं पहुँचा है। यह गॉंव सरदार सरोवर बॉंध की डूब से 1994 से ही प्रभावित है लेकिन यहॉं के बाशिंदे आज भी गॉंव में ही डटे रह कर विनाशकारी विकास नीति को चुनौती दे रहे हैं।
अप्रैल 2002 में जब सर्वोच्च न्यायालय ने सरदार सरोवर बाँध प्रभावितों के समर्थन में लेखन के लिए बुकर पुरस्कार से सम्मानित सुश्री अरुंधती रॉय पर न्यायालय की अवमानना हेतु सजा सुनाई। सजा पूरी कर जेल से छूटने पर गॉंधी शांति प्रतिष्ठान (नई दिल्ली) में आयोजित एक पत्रकार वार्ता में उन्होंने दबंगता से कहा था - "यदि बॉंध प्रभावितों के अधिकारों की बात करना सर्वोच्च न्यायालय का अपमान है तो यह अपमान मैं बार-बार करुँगा। सुप्रीम कोर्ट चाहे तो मुझे भी जेल में डाल दें।"
जून 2002 में मध्यप्रदेश के धार जिले में स्थित मान परियोजना प्रभावित आदिवासी परिवारों को जब सरकार द्वारा पुनर्वास लाभ दिए बगैर उजाड़ दिया गया तो आंदोलन ने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया। प्रभावितों को जून की तन झुलसाती तपन के बीच राजधानी भोपाल में 35 दिनों तक धरना एवं 29 दिनों तक अनशन को बाध्य होना पड़ा। इस दौरान राजनैतिक-प्रशासनिक असंवेदनशीलता के कारण लोगों की पीड़ा को नजरअंदाज कर प्रभावितों को उनके अधिकारों से वंचित करने का प्रयास किया जा रहा था, तब श्री जोशी ने आदिवासियों को उनके हक दिलवाने हेतु काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सरकार के साथ मध्यस्थता भी की। अनशन समाप्ति के बाद जुलाई 2002 में वे पूर्व अनुसूचित जाति-जनजाति आयुक्त श्री बी डी शर्मा के साथ परियोजना प्रभावित क्षेत्र जीराबाद (धार) में एक सप्ताह से अधिक तक रहे तथा परियोजना प्रभावितों को लाभ दिलवाने हेतु उनकी पात्रता निर्धारण में सहयोग दिया। उनके प्रयास से अनेक प्रभावितों को पुनर्वास लाभ मिलना सुनिश्चित हुआ।
श्री जोशी सच्चे अर्थों में देश के जनसंगठनों के सच्चे मित्र थे। यह उनके व्यक्तित्व की खासियत रही कि न तो वे कभी सत्ता के चाटुकार बने और न ही उन्होंने अपनी लेखनी को भी कभी सत्ता के गलियारों की चेरी बनने दिया। उनका निधन न सिर्फ जनसरोकारी पत्रकारिता के लिए क्षति है बल्कि देश के जनसंगठन भी अपने एक सच्चे दोस्त की कमी को हमेशा महसूस करते रहेंगें।
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रहमत भाई "नर्मदा बचाओ आन्दोलन" में सालों से जुड़े रहे कार्यकर्ता हैं. फिलहाल "मंथन अध्ययन केंद्र, बडवानी" के साथ जुड़कर पानी के निजीकरण पर शोध और लेखन कर रहे हैं।
1 टिप्पणी:
प्रभाष जोशी को कभी भुलाया नहीं जा सकता। उनके विचारों को अपनाया जा सकता है। विनम्र श्रद्धांजलि।
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