17.2.14

दिग्विजय सिंह के सियासी दरवाजे

शिरीष खरे

वाकया कोई पांच साल पहले का है. कांग्रेस के दिग्गज नेता जब भोपाल में पत्रकारों के बीच बैठे तो अपनी आदत से मजबूर घंटों बैठे और उठे तभी जब हर एक पत्रकार के सारे सवाल पूरे नहीं हो गए. उन दिनों यह चर्चा गर्म थी कि दिग्विजय सिंह को केंद्र में गृहमंत्री बनाया जा सकता है. इसीलिए किसी ने उनसे जब यह जानना चाहा कि क्या वाकई वे देश के गृहमंत्री बनना चाहते हैं तो एक पल के लिए उन्होंने अपने चेहरे को रहस्यपूर्ण बना लिया. उन्होंने वहां उपस्थित पत्रकारों से ही यह जानना चाहा कि कोई आदमी सांसद बने बिना भला कैसे देश का गृहमंत्री बन सकता है. उन्हें जब राज्यसभा से भी संसद तक पहुंचने का मार्ग याद दिलाया गया तो हाजिर जवाबी में माहिर दिग्विजय सिंह ने तपाक से जवाब दिया कि वे चोर दरवाजे की राजनीति नहीं करेंगे. दिग्विजय सिंह के कहने का सीधा अर्थ यही था कि वे जनता के बीच से चुनकर संसद तक पहुंचेंगे. अगले रोज उनका यह कथन जब अखबारों की सुर्खियां बना तो राजनीति में मामूली दिलचस्पी रखने वालों ने भी यह जान लिया कि इस तीर से दिग्विजय सिंह ने मध्य प्रदेश कांग्रेस के उन प्रतिद्वंदी नेताओं पर निशाना साधा है जो राज्यसभा के दरवाजे से संसद तक पहुंचते रहे हैं. समझने वाले समझ गए कि दिग्विजय सिंह ने उन सुरेश पचौरी पर तंज कसा है जो दो दशकों से राज्यसभा के मार्फत दिल्ली में राजनीति करते रहे हैं.

किंतु सच्चाई अब यह है कि बीते दिनों कांग्रेस ने उन्हीं दिग्विजय सिंह को उनके गृह राज्य मप्र से ही राज्यसभा का सांसद बनाया है. सवाल है कि समय के इस पड़ाव पर आखिर वे कौन-सी परिस्थितियां हैं जिनकी वजह से दिग्विजय सिंह को भी अब संसद के उसी कथित पीछे के दरवाजे से जाना पड़ गया है. लेकिन यह जानने से पहले यह जानना दिलचस्प रहेगा कि दिग्विजय सिंह की राजनीति क्या है?

वाकया तीस साल पहले का है. उन्हें जब मप्र कांग्रेस कमेटी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया तो यह भी साफ हुआ कि युवा चेहरे के रुप में वे ही तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी की पहली पंसद हैं. महज 36 साल की उम्र में उन्होंने जब कांग्रेस जैसी पार्टी में क्षेत्रफल की दृष्टि से तब देश के सबसे बड़े राज्य की कमान संभाली तो राजनीति का बड़ा सबक हासिल किया. बताते हैं कि दिग्विजय सिंह को मप्र में जब कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया जा रहा था तो यह बात उन्होंने सबसे पहले अपने राजनीतिक गुरू स्वर्गीय अर्जुन सिंह को बतायी थी. तब अर्जुन सिंह ने राजीव गांधी के सामने स्वयं उन्हें (अर्जुन सिंह) ही इस कुर्सी पर बैठाने का निवेदन किया था. कहते हैं कि बाद में राजीव गांधी ने दिग्विजय सिंह को दिल्ली बुलाया और पूछा था कि यह बात अर्जुन सिंह तक कैसे पहुंची. इसके बाद दिग्विजय सिंह के बीते ढाई दशकों की राजनीतिक यात्रा को देंखे तो वे जहां भी जाते हैं अपनी मौजूदगी से अपने इर्द-गिर्द एक खुला माहौल तैयार करते हैं. लेकिन उन्हें जानने वाले तब यह जानते हैं कि उसी समय वे अपने चारों तरफ उतने ही रहस्यपूर्ण बन जाते हैं.

पहली बार मप्र के मुख्यमंत्री बनने से लेकर अपने लिए सबसे विकट परिस्थितियों में भी अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित करने के बीच घटी उनकी ढेरों अप्रत्याशित कहानियां ने उन्हें राजनीति की अबूझ पहेली बना दिया है. राज्यसभा में सांसद बनने की हालिया घटना के ठीक पहले तक भी वे यही कहते रहे कि सागर, इंदौर और विदिशा लोकसभा सीट में से किसी एक से चुनाव लडेंगे. गौर करें तो सागर लोकसभा सीट का एक बड़ा हिस्सा राघौगढ़ रियासत के अधीन आता था. लिहाजा दिग्विजय सिंह के अति विश्वसनीय समर्थकों ने सागर संसदीय क्षेत्र में चुनाव की तैयारी शुरू भी कर दी थी. लेकिन नतीजा दिग्विजय सिंह के कथन से ठीक उलट ही आया. और आखिर पहली दफा कांग्रेस ने उन्हें चुनावी राजनीति के फेर में पड़ने की बजाय राज्यसभा के लिए चुन लिया. लेकिन इसकी वजह जानने से पहले यह जानना जरूरी रहेगा कि यह पूरा घटनाक्रम आखिर घटा कैसे और कैसे इसने मप्र की राजनीति को प्रभावित किया?

27 जनवरी, 2014 का दिन राज्य की राजनीति में और एक दिलचस्प दिन की तरह बीता. जैसा कि मालूम है कि बीते विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हालत यहां इस हद तक पतली हो गई है कि कुल 230 सीटों में से उसके साठ विधायक भी नहीं बन सके. ऐसी स्थिति में यहां कांग्रेस से केवल एक व्यक्ति ही राज्यसभा के लिए भेजा जा सकता था. और इसीलिए कांग्रेस में कई बड़े नेताओं के बीच इस इकलौती सीट के लिए रस्साकसी जहां चरम पर थी वहीं पार्टी के नौजवान नेताओं को यह उम्मीद थी की युवा कार्ड के तौर पर उनकी भी लाटरी खुल सकती है. जाहिर है एक अनार के लिए सौ बीमार जैसे हालात ने यहां राज्यसभा सीट का महत्व काफी बड़ा दिया था. लेकिन राज्यसभा के लिए नाम की घोषणा होने का आखिरी दिन यानी 27 जनवरी भी जब बीतने लगा तो पार्टी के विधायकों की बैचेनी कहीं ज्यादा बढ़ चुकी थी. दोपहर को भोपाल में पार्टी विधायक दल की बैठक हुई. लेकिन यहां दिल्ली से यह संदेश प्राप्त हुआ कि हाइकमान ने अपने स्तर पर ही किसी को चुन लिया है. तब यह जिज्ञासा और अधिक बढ़ गई कि भला वह व्यक्ति है कौन? लेकिन शाम ढलते ही जिस नाम का खुलासा किया गया उसका अंदाजा तो दूर-दू तक नहीं था. इस पूरे परिदृश्य में दिग्विजय सिंह के अवतरित होने के साथ ही कांग्रेस में बगावत का बिगुल बज गया. वहीं विरोधी दल भाजपा के नेताओं की ओर से भी कुछ ऐसी प्रतिक्रियाएं आईं कि राज्य की ठंडी पड़ी राजनीति में तपिश आ गई.

27 जनवरी की शाम सभी खबरिया चैनलों पर ज्यों ही दिग्विजय सिंह के राज्यसभा में जाने की ब्रेकिंग न्यूज चली त्यों ही देवास से सांसद सज्जन सिंह वर्मा ने टेलीविजन कैमरामेनों के सामने ही सिंह के खिलाफ जमकर भड़ास निकाली. उनका कहना था कि मप्र, छत्तीसगढ़ और गुजरात जैसे राज्यों में जिन बुजुर्ग नेताओं ने कांग्रेस की लुटिया डुबोयी है उन्हीं को दिल्ली में बढ़ावा दिया जा रहा है. गौर करें तो कांग्रेस ने मप्र से दिग्विजय सिंह के अलावा छत्तीसगढ़ मोतीलाल वोरा और गुजरात से मधुसूदन मिस्त्री को भी राज्यसभा से भेजा है. कमलनाथ समर्थक गुट के वर्मा ने दिग्विजय सिंह पर तीखा हमला बोलते हुए यहां तक कहा, ‘दिग्विजय सिंह को अपने से बीस साल बड़े भाजपा के लालकृष्ण अडवाणी से प्रेरणा लेनी चाहिए जो अब भी लोकसभा चुनाव लड़ने का दम रखते हैं.’ दरअसल दिग्विजय सिंह ने दलील दी थी, ‘उनकी उम्र 67 साल हो चुकी है और यह उनके लिए राज्यसभा में जाने का सही समय है.’ वर्मा से पहले भी कांग्रेस के कई बड़े नेता जैसे सत्यव्रत चतुर्वेदी और कल्पना परूलेकर ने भी प्रदेश में पार्टी की करारी शिकस्त के लिए दिग्विजय सिंह को ही दोषी ठहराया था.

दूसरी तरफ, मजेदार यह भी है कि बात जब दिग्विजय सिंह की हो तो चुनावी लाभ उठाने के मामले में भाजपा कोई मौका नहीं चूकना चाहती. सिंह के राज्यसभा में जाने की खबर पुष्ट हो गई तो राज्य भाजपा में दूसरी पंक्ति के सभी बड़े नेताओं ने एक साथ और लगातार बयानबाजी तेज कर दी. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा से लेकर पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर और उमा भारती ने जो कहा उसका सार यही था कि हार के डर से दिग्विजय सिंह ने अपना इरादा बदल दिया है. उद्योगमंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘लोकसभा में जब कांग्रेस हारेगी तो संसद में पीछे के दरवाजे से गए दिग्विजय सिंह ही नेता प्रतिपक्ष बनेंगे.’ दरअसल लोकसभा का चुनाव नजदीक है और ऐसे में भाजपा की कोशिश है कि दिग्विजय सिंह के बहाने यह कहकर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ा जाए कि लड़ाई से पहले ही उनके सेनापति भाग गए हैं. वहीं भाजपा इसी बहाने जनता के बीच यह संदेश भी देना चाहती है कि कांग्रेस यहां इतनी बेदम हो चुकी है कि उनके बड़े नेता भी चुनाव में उतरने से बच रहे हैं.

इस पूरी सियासी पैंतरेबाजी के बीच दिग्विजय सिंह की राज्यसभा टिकट की यदि पड़ताल की जाए तो साफ होता है कि जैसा दिखता है वैसा है नहीं. यहां यह बात अहम नहीं है कि दिग्विजय सिंह क्या चाहते है. और न ही यह सवाल जायज है कि जैसा वे चाहते हैं वैसा पाने की हैसियत उनकी है या नही. बुनियादी सवाल यह है कि पार्टी उनका उपयोग किस प्रकार करना चाहती है. और दिग्विजय सिंह क्या उसके अनुरुप खुद को ढाल पाएंगे? पुराने तजुर्बे देंखे तो सिंह जैसे परिपक्व नेता जानते हैं कि पार्टी की लाइन असल में तलवार की ऐसी धार होती है जिससे फिसलते ही उनका कटना तय है. वे जानते हैं कि पार्टी हाइकमान नहीं चाहता कि दिग्विजय सिंह मप्र की राजनीति में सक्रिय दिखे. और यही वजह है कि खुद दिग्विजय सिंह भी सालों से यही दोहरा रहे हैं कि वे केंद्र की राजनीति में ही रहेंगे. यह सच है कि गृहराज्य होने की वजह से पार्टी के हर निर्णय के पीछे यहां उनकी भूमिका तलाशी जाती है. यह भी सच है कि उनके धुर समर्थक और विरोधी सियासी नफा-नुकसान के लिए उनका नाम मप्र की राजनीति में बार-बार घसीट लाते हैं. लेकिन दिग्विजय सिंह इस मामले में हमेशा से यह सर्तकता बरत रहे हैं कि यदि उन्होंने मप्र की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने में दिलचस्पी दिखायी तो यह उनके भविष्य की राजनीति के लिए ठीक नहीं रहेगा. यही वजह है कि बीते दस सालों से पार्टी ने भी उन्हें राज्य की राजनीति में कभी निर्णायक भूमिका नहीं सौंपी. 2008 का विधानसभा चुनाव जहां सुरेश पचौरी के नेतृव्य में लड़ा गया वहीं 2013 का चुनाव ज्योतिरादित्य सिंधिया को आगे करके लड़ा गया. 2013 के ही चुनाव प्रचार के दौरान भी कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी की मौजूदगी में उन्होंने सिंधिया के पीछे बैठते हुए यही जताना चाहा कि राज्य की राजनीति में या तो वे पीछे बैठे हुए हैं या उन्हें पीछे ही बैठाया गया है. और अब जबकि उन्हें राज्यसभा से चुना गया है तो सीधी-सी बात है कि पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर ही उनकी भूमिका तय की है.

दूसरी बात यह है कि हाइकमान के काफी निकट होने की वजह से दिग्विजय सिंह जैसे सधे हुए नेता जानते हैं कि पार्टी का अगला कदम क्या होगा. उनका अपने पुत्र जयवर्धन सिंह को राघौगढ़ विधानसभा सीट से लड़ाने के साथ ही यह स्पष्ट हो चुका था कि अब उनके लिए मप्र में कोई बड़ी संभावना नहीं बची है. दरअसल सभी दलों ने खास तौर से युवा मतदाताओं को रिझाने के लिए कई प्रकार की मुहिम चलायी हुई हैं. ऐसे में राहुल गांधी ने मप्र में भी युवा नेतृव्य को ही मौका दिया है. यही वजह है कि उन्होंने खंडवा से युवा सांसद अरूण यादव को जहां पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है वहीं कई बुजुर्ग विधायकों की मौजूदगी के बावजूद सत्यदेव कटारे को नेता प्रतिपक्ष बनाया है. जाहिर है कि लोकसभा का चुनाव पार्टी युवाओं को आगे करके लड़ना चाहती है. और इसीलिए हाइकमान ने दिग्विजय सिंह को राज्यसभा से ले जाना मुनासिब समझा. यही वजह है कि विधानसभा चुनाव के काफी पहले ही दिग्विजय सिंह ने भी अपने पुत्र जयवर्धन सिंह को राजनीति में लाने का रास्ता साफ कर दिया था. अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के एक पदाधिकारी के मुताबिक, ‘सिंह के विरोधियों ने राहुल गांधी तक ऐसी बातें पहुंचा दी थीं कि जब तक राज्य में सिंह जैसे बरगद रहेंगे तब तक पार्टी के भीतर नये पौधे पनप पहीं पाएंगे.’ इसीलिए हाइकमान ने सिंह को राज्यसभा में ससम्मान ले जाकर उनकी जिम्मेदारी बढ़ा दी है.

वहीं दिग्विजय सिंह के राज्यसभा में जाने के कुछ अलग मायने भी हैं. जैसा कि वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक गिरजा शंकर बताते हैं कि भाजपा और कांग्रेस सहित सभी दलों में अब यह परंपरा-सी बन गई है कि जो नेता पार्टी के लिए अनिवार्य हैं उन्हें राज्यसभा से चुन लिया जाए. वहीं जिन नेताओं के बिना भी पार्टी का काम चल सकता है उन्हें लोकसभा से लड़ने का मौका दिया जाए. यदि वे लोकसभा चुनाव जीतकर संसद तक पहुंचे तो अच्छी बात है, अन्यथा कोई बात नहीं. यदि भाजपा में ही देंखे तो अरूण जेटली और वेंकैया नायडू के अलावा राज्यसभा से पहुंचाये गए कई जरूरी नेताओं की एक लंबी सूची मिलेगी. गिरजा शंकर के मुताबिक, ‘यदि दिग्विजय सिंह को राज्यसभा से ले जाया गया है तो सीधी बात है कि बाकी नेताओं के मुकाबले पार्टी में उनका महत्व अधिक है. साथ ही इसका मतलब यह भी है कि पार्टी के लिए अब वे एक अनिवार्य नेता भी बन चुके हैं.’ इसके इतर देखा जाए तो कांग्रेस की तरफ से उनके पास कर्नाटक और आंध्र प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्यों का प्रभार भी है. कर्नाटक में कांग्रेस की जहां नई-नवेली सरकार बनी है वहीं तेलंगाना राज्य की मांग के चलते आंध्र प्रदेश अत्यंत संवेदनशील राज्य बन चुका है. जाहिर है कि मप्र के बाहर ही दिग्विजय सिंह के कंधों पर पहले से ही इतनी अधिक जिम्मेदारियां डाल दी गई हैं कि उन्हें निभाना ही अपनेआप में बड़ी चुनौती रहेगी.

आखिर सवाल यही आता है कि कांग्रेस हाइकमान ने दिग्विजय सिंह को बीते एक दशक से मप्र की राजनीति से बाहर क्यों रखा है? इस कहानी को जानने के लिए इसी के साथ दिग्विजय सिंह की कहानी को भी जान लेना ठीक रहेगा. काबलेगौर है कि 1977 में जब हर जगह से कांग्रेस हारी तब दिग्विजय सिंह ने राघौगढ़ विधानसभा जीता था. 1993 का विधानसभा चुनाव उन्हीं के नेतृव्य में लड़ा और जीता गया था. जब वे पहली दफा मुख्यमंत्री बने तो 46 साल के युवा मैकेनिकल इंजीनियर को इस पद पर देखकर लोगों ने कुछ ज्यादा ही उम्मीदें पाल ली थीं. लेकिन इंजीनियरिंग जैसी आधुनिक शिक्षा पाने के बावजूद वे राजनीति के परंपरागत रुप में ही नजर आए. वे उन तमाम सियासी हथकंडों को अपनाते नजर आएं जिन्हें नेता किया करते हैं. उनकी छवि को तब और धक्का लगा जब सरकारी नौकरियों में भर्ती अभियानों पर रोक लगा दी गई. दिग्विजय सिंह ने सोशल इंजीनियरिंग में तो खूब हाथ बटाया लेकिन आधुनिक विकास की पटरी से मप्र औंधे मुंह गिर गया. खास तौर पर बिजली, पानी और सड़क की हालत इस हद तक बिगड़ गईं कि तब उन्हें लेकर भांति-भांति के चुटकुलें गढ़े गए. ऐसा ही एक चुटकुला तब खूब चला कि यदि आप हवाई जहाज से जा रहे हैं और बीच रास्ते में आपको झटका लगे तो समझ जाना कि मप्र आ गया है. यही वजह थी कि 2003 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को यहां महज 38 सीटें मिली थीं. इसके बाद भाजपा ने हर विधानसभा चुनाव में दिग्विजय सिंह के कार्यकाल को याद दिलाया और यह डर दिखाया कि यदि कांग्रेस लौटी तो वे फिर आ जाएंगे. वहीं कांग्रेस भी उनके नाम को लेकर इतनी हतोत्साहित दिखी कि सत्ता के विकेंद्रीकरण और शिक्षा के लोक-व्यापीकरण जैसी उनकी उपलब्धियों को भी चुनावी मुद्दा नहीं बना सकी.

कांग्रेस के भीतर दिग्विजय सिंह के विरोधियों ने भी उनकी इसी कमजोरी का फायदा उठाते हुए दिल्ली में हाइकमान को यह डर दिखाया कि यदि दिग्विजय सिंह को मप्र के किसी भी चुनाव में आगे किया गया तो समझो पार्टी की हार पक्की है. लेकिन दिग्विजय सिंह के पास अपनी कमजोरी को ताकत में बदलने का हुनर भी है. लेकिन अपनी कमजोरी को ताकत बनाने में माहिर दिग्विजय सिंह को इसका फायदा भी मिलता रहा. नतीजा यह हुआ कि जैसे-जैसे उन्हें मप्र से दूर रखा गया वैसे-वैसे उन्हें दिल्ली में और अधिक मजबूत होने का स्वाभाविक मौका मिलता गया.

अपनी कमजोरी को ताकत बनाने में माहिर दिग्विजय सिंह की कई कहानियां हैं. उन्होंने 2003 विधानसभा चुनाव के पहले कांग्रेसियों के भड़ास सम्मेलन आयोजित किए. इनमें कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को खुलकर बोलने की इजाजत थी. ऐसे ही एक सम्मेलन में उन्होंने सोनिया गांधी के सामने ही वरिष्ठ नेता रामेश्वर नीखरा को अपनी ही सरकार के एक मुख्यमंत्री के खिलाफ बोलने का मौका दिया. जब नीखरा ने अपनी बात पूरी कर ली तब सिंह ने अकेले में सोनिया गांधी को भी सारी बातें स्पष्ट कर दीं. इसका फायदा यह हुआ कि तब वे बाकी विधायकों द्वारा बनाए जा रहे सभी दवाबों से बच गए. कुल मिलाकर, मप्र की राजनीति में दिग्विजय सिंह को ऐसा अमीबा कहा जाता है जिसे जितना काटो-छांटो वह उतना अधिक फलता-फूलता है.

13.8.13

अंधेरी गलियों के रौशन सितारे

शिरीष खरे

शहरी झोपड़पट्टियों में रहने वाले बच्चों की जिंदगी को बोझिल, बेबस और हताश जानकर अक्सर उनसे मुंह फेर लिया जाता है. मगर एक सूझबूझ भरे प्रयास के चलते उसी दुनिया की कुछ लड़कियां आज न केवल सामाजिक अनदेखियों और तमाम बाधाओं से आगे निकल रही हैं बल्कि खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने के रास्तों से उजाला भी दिखा रही हैं. चेन्नई से शक्ति अस्मिना वंचित समुदाय की ऐसी ही लड़की है जो इस बदलाव को सिर्फ महसूस ही नहीं कर रही है






शक्ति बदलाव की

दक्षिण भारत के सबसे तेज बढ़ते शहर चेन्नई का एक चेहरा यहां की अनगिनत झोपड़पट्टियां भी हैं, जिन्हें बदनुमा दाग समझा जाता है. मगर तमाम बाधाओं के बीच यहां सपने देखने का हौसला भी है और उसे हकीकत में बदलने का जज्बा भी. शहर के उत्तरी हिस्से की ऐसी ही एक गुमनाम-सी झोपड़पट्टी में शक्ति नाम की लड़की इसी बदलाव की इबारत लिख रही है.

उसकी हमउम्र दूसरी लड़कियां जहां तीन साल की उम्र में नर्सरी स्कूल जाने लगी थीं, वहीं 6 साल की उम्र में शक्ति मछली बेचने की एक दुकान पर काम करने लगी थी. मछलियां छांटते और नंगे हाथों से बर्फ फोड़ते हुए उसने जाना कि उसके लिए तमाम खेल सपने की तरह हैं फिर वह फुटबाल ही क्यों न हो जो कि उसे बेहद पसंद था.


छह घंटे के काम के बदले उसे रोजाना महज 15 रु. मिलते थे. काम से छुट्टी मिलते ही वह घर की तरफ दौड़ पड़ती और स्कूल जाने को मचल पड़ती. इसकी एक वजह यह भी थी कि उसे वहां के मैदान पर फुटबाल खेलने को जो मिलता था. वैसे तो उसके जैसी कुछ और लड़कियां भी फुटबाल खेलती थीं, मगर गरीबी उसे स्कूल की दूसरी लड़कियों से अलग कर देती थी. इसी गरीबी के चलते एक रोज उसे पढ़ाई, फुटबाल और दोस्तों को छोड़ना पड़ा था. इसके बाद वह 12 घंटे काम करके रोजाना 30 रू. कमाने लगी. शक्ति के पिता को रोज-रोज काम नहीं मिलता था, लिहाजा घर चलाने के लिए उसकी मां को दूसरों के घरों में काम करना पड़ता था.


बदली ज़िंदगी
शक्ति से फुटबाल का खेल क्या छूटा उसकी जिंदगी से खुशियां ही गायब हो गईं. मानो उसका बचपन ही उजड़ गया. मगर उसके चेहरे पर खुशियां तब लौट आई जब वह एससीएसटीईडीएस यानी `स्लम चिल्ड्रन स्पोर्ट्स टेलेंट एजुकेशन डेवल्पमेंट सोसाइटी´ से जुड़ गई.

एससीएसटीईडीएस एक सामुदायिक संस्था है जो वहां की झोपड़पट्टियों के बच्चों को इकट्ठा करती है और नगर-निगम के मैदान पर फुटबाल खेलने के लिए प्रेरित करती है. दरअसल यह बच्चों के व्यवहार को जानने का पहला कदम होता है. यहीं से स्कूल छोड़ने वाले बच्चों के बारे में भी पता चलता है और उन्हें स्कूल से जोड़ा जाता है. शक्ति भी कुछ इसी तरीके से जुड़ी और यहां से उसे एक स्टॉर फुटबाल खिलाड़ी के तौर पर जाने जाना लगा.

एससीएसटीईडीएस के थंगराज कहते हैं "जब शक्ति स्कूल जाती थी तो उसके टीचर उसे मछुआरा समुदाय की होने की वजह से अक्सर अपमानित करते थे." संस्था ने उसे हौसला दिया और शक्ति के माता-पिता को इस बात के लिए राजी किया कि वह अपनी बेटी को एक बार फिर से नगर-निगम के स्कूल में भेजे.

थंगराज याद करते हैं, "इस बार शक्ति के माता-पिता ने उसकी पढ़ाई की कमियों को देखा और उसके आने वाले कल में संभावनाएं तलाशी. अब वह अपनी बेटी की पढ़ाई फिर से शुरू करवाने को उत्सुक थे." इसी विश्वास के साथ शक्ति के बड़े और छोटे भाईयों को भी स्कूल में भर्ती कराया गया. उनके भीतर पढ़ाई से लेकर खेल जैसी तमाम प्रतिभाओं का मूल्यांकन किया गया और उसके मुताबिक सबको मौका दिया गया.





शानदार गोल
एससीएसटीईडीएस ने शक्ति की मजबूरियों और जरूरतों को ध्यान में रखकर कदम बढ़ाया. मसलन, स्कूल जाने के लिए बस का किराया, यूनीफार्म, दिन का खाना और फुटबाल खेलने से जुड़ी जरूरतें. शक्ति की खेल प्रतिभा को देखकर एससीएसटीईडीएस ने उसके नियमित तौर पर फुटबाल के अभ्यास की व्यवस्था की. धीरे-धीरे उसके भीतर छिपी खेल प्रतिभा उभरकर सामने आने लगी और उसके भीतर से स्कूल को लेकर पैदा हुए सारे डर भी दूर हो गए. कुछ टीचर तो शक्ति के प्रशंसक और सहयोगी तक बन गए.

उसे नियमित प्रशिक्षण मिला जिसके चलते शक्ति ने अंडर-14 की राज्य स्तरीय फुटबाल टीम में अपनी जगह बनाई. बीते 4 सालों में उसने जिला और राज्य स्तर के कई मैच खेले हैं.

अब वह 18 साल की हो चुकी है. पांच साल पहले कालेज जाना उसके लिए सपना ही था जो अब हकीकत में बदल रहा है. उसका बड़ा भाई अब नौकरी करता है और उसने अपनी छोटी बहन को कालेज भेजने का फैसला लिया है. शक्ति अब भारत की महिला फुटबाल टीम में शामिल होकर अंतरराष्ट्रीय स्तर के मैच खेलना चाहती है. वाकई उसने अपनी जिदंगी में मिले मौकों को शानदार गोल में बदला है.

22.4.13

एक समान शिक्षा का विकल्प

शिरीष खरे

 

‘स्कूल चले हम’ कहते वक्त अलग-अलग स्कूलों में पल रही गैरबराबरी पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता. एक ओर जहां क, ख, ग लिखने के लिए ब्लैकबोर्ड तक नही पहुंचे हैं, वहीं दूसरी तरफ चंद बच्चे प्राइवेट स्कूलों में मंहगी ईमारत, अंग्रेजी माध्यम और शिक्षा की जरूरी व्यवस्थाओं का फायदा उठा रहे हैं.

केन्द्रीय कर्मचारियों के बच्चों के लिए केन्द्रीय विद्यालय हैं, सैनिको के बच्चों के लिए सैनिक स्कूल हैं, तो गांव में मेरिट लिस्ट के बच्चों के लिए नवोदय स्कूल हैं. लेकिन पिछड़े परिवारों के बच्चों की एक बड़ी संख्या सरकारी स्कूलों में पढ़ाई करती है. जाहिर है, सभी के लिए शिक्षा कई परतों में बंट चुकी है. निजीकरण के समानांतर यह बंटवारा भी उसी गति से फल-फूल रहा है.

भारत में 6 से 14 साल तक के सभी बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा कानून भले ही लागू हो चुका हो लेकिन 60 प्रतिशत बच्चे प्राथमिक शिक्षा से वंचित हैं. हकीकत में पांचवी तक पहुंचने वाले अधिकतर बच्चे भी दो-चार वाक्य लिख पाएं, ऐसा जरूरी नहीं है. शिक्षा रोजगार से जुड़ा मसला है, इसलिए बड़े होकर बहुत से बच्चे आजीविका की पंक्ति में सबसे पीछे खड़े मिलते हैं.

इसके उलट दुनिया के अमीर देशों मसलन अमरीका या इंग्लैण्ड में सरकारी स्कूल ही बेहतरीन शिक्षा व्यवस्था की नींव माने जाते हैं. वहां की शिक्षा व्यवस्था पर आम जनता का शिकंजा होता है. इसके ठीक विपरीत पिछड़े देशों में प्राइवेट स्कूलों की शिक्षा पर लोग ज्यादा भरोसा कर रहे हैं. इसी धारणा का फायदा प्राइवेट स्कूल के प्रंबधन से जुड़े लोग उठा रहे हैं, जो मनमाने तरीके से स्कूल की फीस बढ़ाते जा रहे हैं. हमारे देश में भी ऐसा ही चल रहा है.

कई शिक्षाविदों का मानना है कि पूरे देश के हर हिस्से में शिक्षा का एक जैसा ढांचा, एक जैसा पाठयक्रम, एक जैसी योजना और एक जैसी नियमावली बनायी जाए. इससे मापदंड, नीति और सुविधाओं में होने वाले भेदभाव बंद होंगे. शिक्षा के दायरे से सभी परतों को मिटाकर एक ही परत बनाई जाए. इससे हर बच्चे को अपनी भागीदारी निभाने का एक समान मौका मिलेगा.

महज शिक्षा में ही समानता की बात करना ठीक नहीं होगा बल्कि इस व्यवस्था को व्यापक अर्थ में देखने की जरूरत है.

कोठारी आयोग (1964-66) देश का ऐसा पहला शिक्षा आयोग था जिसने अपनी रिपार्ट में सामाजिक बदलावों के मद्देनजर कुछ ठोस सुझाव दिए थे. आयोग के मुताबिक समान स्कूल के नियम पर ही एक ऐसी राष्ट्रीय व्यवस्था तैयार हो सकेगी जहां सभी तबके के बच्चे एक साथ पढ़ेंगे. अगर ऐसा नहीं हुआ तो समाज के ताकतवर लोग सरकारी स्कूल से भागकर प्राइवेट स्कूलों का रुख करेंगे और पूरी प्रणाली ही छिन्न-भिन्न हो जाएगी. 1970 के बाद से सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में तेजी से गिरावट आने लगी. आज स्थिति यह है कि ऐसे स्कूल गरीबो के लिए समझे जाते हैं.

कोठारी आयोग द्वारा जारी सिफारिशो के बाद संसद 1968, 1986 और 1992 की शिक्षा नीतियों में समान स्कूल व्यवस्था का उल्लेख तो करती है लेकिन इसे लागू नहीं करती है. दूसरी तरफ सरकार की विभिन्न योजनाओ के अर्थ भी भिन्न-भिन्न हैं, जैसे कि कुछ योजनाएं शिक्षा के लिए चल रही हैं तो कुछ महज साक्षरता को बढ़ाने के लिए. इसके बदले सरकार क्यों नहीं एक ऐसे स्कूल की योजना बनाती जो सामाजिक और आर्थिक हैसियत के अंतरों का लिहाज किए बिना सभी बच्चों के लिए खुला रहे. फिर वह चाहे कलेक्टर या मंत्री का बच्चा हो या चपरासी का हो. सब साथ-साथ पढ़े और फिर देखें कौन कितना होशियार है.

असल में समान स्कूल व्यवस्था एक ऐसे स्कूल की अवधारणा है, जो योग्यता के आधार पर ही शिक्षा हासिल करना सिखाती है. आम बोलचाल में कहें तो इसकी राह में न दौलत का सहारा है और न शोहरत का. इसमें न टयूशन के लिए कोई फीस होगी और न ही किसी प्रलोभन के लिए स्थान. लेकिन सवाल फिर भी आएगा कि जो भेदभाव स्कूल की चारदीवारियों में हैं, वही तो समाज में मौजूद है. इसलिए समाज के उन छिपे हुए कारणों को पकड़ना होगा जो स्कूल के दरवाजों से घुसते हुए ऊंच-नीच की भावना बढ़ाते हैं. यह भावना भी एक समान स्कूल व्यवस्था की अवधारणा की राह में बड़ी बाधा है. इसलिए महज शिक्षा में ही समानता की बात करना ठीक नहीं होगा बल्कि इस व्यवस्था को व्यापक अर्थ में देखने की जरूरत है.

गोपालकृष्ण गोखले ने 1911 में नि:शुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का जो विधेयक पेश किया था, उसे उस समय की सांमती ताकतों ने पारित नहीं होने दिया था. इसके पहले भी महात्मा ज्योतिराव फुले ने अंग्रेजों द्वारा बनाये गए भारतीय शिक्षा आयोग (1882) को दिए अपने ज्ञापन में कहा था कि "सरकार का अधिकांश राजस्व तो मेहनत करने वाले मजदूरों से आता है लेकिन इसके बदले दी जाने वाली शिक्षा का पूरा फायदा तो अमीर लोग उठाते हैं." आज देश को आजाद हुए 62 साल से अधिक हो गए और उनके द्वारा कही इस बात को 128 साल. लेकिन स्थिति जस की तस है.

निजीकरण के कारण पूरे देश में एक साथ एक समान स्कूल प्रणाली लागू करना मुश्किल होता जा रहा है. इसके सामानांतर यह और भी जरूरी होता जा रहा है कि एक जन कल्याणकारी राज्य में शिक्षा के हक को बहाल करने के लिए मौजूदा परिस्थितियो के खिलाफ अपनी आवाज बढ़ायी जाए. इस नजरिए से शिक्षा के अधिकारों के लिए चलाया जा रहा राष्ट्रीय आंदोलन एक बेहतर मंच साबित हो सकता है. इसके तहत राजनैतिक दलों को यह एहसास दिलाये जाने की जरुरत है कि समान स्कूल व्यवस्था अपनाना कितनी जरूरी है और शिक्षा के मौलिक हकों को लागू करने के लिए यही एकमात्र विकल्प बचा है.

 

10.4.13

Jeevanshalas i.e. Schools of Life

BY Shirish Khare


Advantages and disadvantages of the Sardar Sarovar Dam. The debate continues over the past two decades, our hearts - and minds have been raised two images. First picture of electricity, water and the path to development as the other thousands of people, the pain of displacement stands for. Narmada Valley is eager to learn out of this movement. There are two parallel lines of movement. Action based on non-violence is kept in a way that shows creativity on the other.

Aborigines DAM Jeevanshala names for their children, many schools have made. According to people `Action - education - with the 'must have. Vindhyachal and Satpura ranges in shade of the many small and beautiful village. The village is very far from the district headquarters and pouring between forests. These places are waiting for the teacher to become dream out loud a school building was considered stare of destiny. It never approached the dam displaced children's education is not installed. Every time the assurance found and remained dream out loud unchanged for the position. dream out loud Finally, the initiative to change their own tribesmen. In 1991-92, the Jeevanshala Cimlkedi and Nimganv began. Not know anything new and challenging work stood like a mountain. Sbawlnbi was still Jeevanshala base. Introduction of limited means, resources and community capacity in line with better education were emphasized. The aim of these Jeevanshala Filling the void of public schools was not only maintain but also the tribal lifestyle. About 13 villages around Jeevanshala currently operates more than 1500 children who teaches Barhkdi of life. 

'Narmada Bachao Andolan' blessing connected Mndloi stating that - "Well Jeevanshala is the result of the battle to prevent displacement of the birth place agitators but soon diversified to discuss strategy dream out loud and became the main focus of the event was held. Jeevanshala this movement, both to one another - began to benefit. A place that became a symbol of tribal unity and participation.'' Jeevanshala the school is kept smooth the way. Some of the people went out and began to teach. The village's bid was preferred. The publication of books Pavri/Bhilali were dialects. The first time the kids could not get their bid books. Teachers' Amar Kenya'' (our stories), picked up a total of 12 tribal stories. In addition dream out loud to social dream out loud issues, "Amro Jungle'' (our forest) and" dream out loud tribal Vieab'' (tribal marriage) and the books were written. Kewal Singh guru "Amro many of the herbs in the forest'' - told herbs. Khuman Singh guru "Rojya Naik, Naik'' Cheema rule book in English Snvria village during the war highlighted. Itihas tribal society in such books, literature, art, culture and traditions of the local geography, administration and legal rights to make things happen. 


Jeevanshala left from the first generation is complete now. Teachers are now being extended beyond their rituals. But in the name of development of forest cutting and valley people have started dream out loud feeling a lack of food. Of land separated from the tribal finds himself suddenly standing in the market. Find them and neither emotional nor financial security. While such a large population dream out loud living means innocent dream out loud have snatched the other hand, he is said to be backward. Displacement is a function of speed. 


The book gives the message to make such friendly relationship with nature. Ajmaya several techniques to make learning interesting. "The characters Olkhan'' (syllabary) in a bid to identify and add the letters have been taught. Many voices or removing it from the things around compromise has to. Dancing - singing, painting and sports studies Mnnarnjk becomes. Several methods to write again and again repeated. 


Displacement, or once again - time to settle down, get take advantage dream out loud of a government scheme, yielding dream out loud the title of the host community inattention, new adjustments, exploitation, sexual harassment, plus expenses, violence, crime, disorder, limitations of resources or land, Decision of the activity, erosion, temporary labor, sacrifice of cattle, pollution, convenience dream out loud and health crisis ........ Aside from the enormous fears so full load displacement of dam and into the hands of the other side Jeevanshala open books for toddlers - which is clear. Although he still has a lot to pass the exam but not a streak of concern on his face. Seeing the smiling faces of millions of children fighting mood problems.


12.3.13

पहली बारिश में बह न जाएं बुंदेलखंड पैकेज की नहरें


बुंदेलखंड की तस्वीर बदलने की कवायद को मध्य प्रदेश का ग्रामीण अभियांत्रिकी सेवा (आरईएस) तार-तार करने में लगा है. करोड़ों की लागत से बनाई गई नहरें और स्टॉप बांध की हालत इतनी खस्ता है कि वे पहली बरसात के पानी में ही ढह जाएंगी. बुंदेलखंड पैकेज के तहत कराए गए विकास कार्यो का जायजा लेने आए तकनीकी दल की रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है.
मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैले बुंदेलखंड इलाके में कुल 13 जिले हैं. इनमें से सात उत्तर प्रदेश में और छह जिले(छतरपुर, सागर, दमोह, टीकमगढ़, पन्ना और दतिया) मध्य प्रदेश में आते हैं. इस इलाके की देश और दुनिया में पहचान गरीबी और भुखमरी को लेकर रही है. समस्या ग्रस्त क्षेत्र के रूप में पहचान बना चुके इस इलाके के लोगों के जीवन में खुशहाली लाने के लिए कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी की पहल पर 7,200 करोड़ का विशेष पैकेज मंजूर हुआ था. इस पैकेज की राशि का उपयोग 13 जिलों में मुख्य तौर पर सिंचाई परियोजना सहित पेयजल उपलब्ध कराने के लिए किया जा रहा है. मध्य प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में सिंचाई के लिए नहर और टॉप बांध बनाने का काम ग्रामीण विकास विभाग की ग्रामीण अभियांत्रिकी सेवा के जिम्मे है. यहां पूरी हुई 50 परियोजनाओं की हकीकत जानने के लिए जनवरी माह में योजना आयोग के अधीन आने वाले नेशनल रेन फेड एरिया अथॉरिटी के एक तकनीकी दल ने नमूने के तौर पर 10 परियोजनाओं का मौका मुआयना किया. तकनीकी विशेषज्ञ एके सिक्का और केडी शर्मा की रिपोर्ट चौंकाने वाली है.

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि किसानों ने अपनी जरूरत और मैदानी स्थिति के मुताबिक सिंचाई के प्रबंध किए हैं. इन्हें पूरा करते वक्त आसपास के क्षेत्र के समतलीकरण, आकार विशेष का कोई ध्यान नहीं रखा गया है. आरईएस द्वारा बनाए गए नहर व स्टॉप बांध मुश्किल से नजर आते हैं, अपूर्ण हैं और उनका निर्माण घटिया स्तर का होने के कारण पहली बरसात में ही बह जाने का अंदेशा है. दमोह जिले के हर्रई में बना एक स्टॉप बांध पहली ही बरसात में बह गया था. इतना ही नहीं इस स्टॉप बांध में दरवाजा तक नहीं था.

नहर और स्टॉप बांध के घटिया निर्माण पर तकनीकी दल ने सवाल उठाते हुए बुंदेलखंड पैकेज के तहत अन्य कार्य आईईएस से न कराए जाने की अनुशंसा की है.  रिपोर्ट में कहा गया है कि सिंघपुर में पेयजल वितरण परियोजना पूरी होने के बावजूद बंद पड़ी है. डेढ़ साल पहले योजना पूरी होने के बाद भी लोगों को इसका लाभ नहीं मिल पाया है. 

बुंदेलखंड की हालत में सुधार लाने के लिए मंजूर पैकेज का दुरुपयोग किसी से छुपा नहीं है.  इससे पहले भी पन्ना जिले में विकास कार्यो में गफलत की कलई खुल चुकी है. सूचना के अधिकार के तहत सामने आए दस्तावेजों से पता चला था कि दुपहिया वाहनों से टनों मिट्टी और पत्थर ढोया गया है. इसी तरह शिवपुरी जिले में निर्माण कार्य में उपयोग में लाए गए लोहे का 52 हजार रुपये किलोग्राम की दर से भुगतान किया गया है. अब तो तकनीकी दल ने ही सिंचाई योजनाओं के तहत कराए गए निर्माण कार्यो पर सवाल उठाते हुए आरईएस की कार्यशैली को संदिग्ध बना दिया है.

13.2.13

कटकर सूख गये मालधारी






शिरीष खरे

पोरबंदर/एशियाई शेरों के सुरक्षित घर कहे जाने वाले गिर अभयारण्य में बरसों पहले मालधारियों का भी घर था. ‘माल’ यानी संपति यानी पशुधन और ‘धारी’ का मतलब ‘संभालने वाले’. इस तरह पशुओं को संभाल कर, पाल कर मालधारी अपनी आजीविका चलाते थे. एक दिन पता चला कि अब इस इलाके में केवल शेर रहेंगे. फिर धीरे-धीरे मालधारियों को उनकी जड़ों से उखाड़कर फेंकने का सिलसिला शुरु हुआ.

आज की तारीख में वन्यजीव अभयारण्य के चलते गिरी के जंगलों से बेदखल हुए मालधारी समुदाय के पास जहां रोजीरोटी एक प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह हो गया है, वहीं बुनियादी सुविधायें भी सिरे से लापता हैं. अपनी सामाजिक पहचान बनाने की जद्दोजहद के बीच उनके सामने शिक्षा और सेहत जैसे कई सवाल हैं, जिसका जवाब कोई नहीं देना चाहता. 

मालधारियों का घर
गुजरात में शुष्क पर्णपाती जंगल, नम पर्णपाती जंगल, घास के बड़े-बड़े मैदान, समुद्र के लंबे-लंबे किनारे और बहुत सारे दलदली इलाके हैं. यहां 4 राष्ट्रीय उद्यान और 20 अभयारण्य हैं, जो 13 विकासखण्डों की 24 जगहों पर बसे हैं. प्रदेश के 4 राष्ट्रीय उद्यान जहां कुल 47,967 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में हैं, वहीं 20 अभयारण्य कुल 16,74,224 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले हैं.

इन्हीं में एक गिर का अभयारण्य भी है, जो एशियाई शेरों का सुरक्षित घर कहलाता है. यह 1424 वर्ग किलोमीटर में फैला सघन जंगल, देश के सबसे बड़े शुष्क पर्णपाती जंगलों में से एक है. यही वह फैलाव है, जिसके आसपास मालधारी समुदाय का जीवन अपना विस्तार पाता था.

आरक्षित जंगल वाले इस इलाके को 70 के दशक में वन्य अभयारण्य के तौर पर अधिसूचित किया गया था. सबसे पहले 1972 में, सरकार ने यहां के 845 मालधारी परिवारों में से 580 परिवारों को जंगल से बाहर करने की कवायद शुरु की और देखते ही देखते 129 बस्तियों से तकरीबन 5000 आबादी को जंगल से उजाड़ दिया गया. तब से अब तक, यहां वन्य संरक्षण के नाम पर मालधारियों का शिकार बाकायदा जारी है.

बरदा एक ऐसा ही इलाका है, जो विस्थापन की सूची से फिलहाल तो छूटा हुआ है लेकिन वन विभाग का जंगल राज जब तब यह अहसास कराता रहता है कि मालधारियों की कोई औकात नहीं है और वन विभाग जब चाहे मालधारियों को जानवरों की तरह हकाल सकता है. 

बरदा के जेसिंगभाई, हरिसिंग भाई, रामगुलाब, चंदाभामा जैसे लोगों से अगर आप बात करें तो सब के पास अब केवल पुराने दिनों की यादें शेष हैं. एक-एक आदमी के पास अपने-अपने किस्से हैं. वन-विभाग के आने के पहले तक उनका जीवन कितना मस्त, आजाद, आत्मनिर्भर, सरल, व्यवस्थित और हरा भरा था. लेकिन पिछले 40 सालों में सरकार ने मालधारियों को उनकी जड़ों से ऐसा काटा कि उनका जीवन सूख ही गया. 

जानवरों के नाम पर
70 के दशक में विभाग ने यहां सर्वे किया, जंगलों को नापा और जमीनों की हदबंधी की. देखते ही देखते, उसने जंगल की जमीनों को राजस्व की जमीनों में बदलना चालू किया. इसके बाद विभाग ने पानी से लेकर कंदमूल और पेड़ की टहनियों, यहां तक कि जिन पत्थरों और गीली माटी से मालधारियों ने अपने घर बनाए , उनके इस्तेमाल तक पर पाबंदी लगा दी. 

सरकार को जंगल के जीवों की देखभाल का तो ख्याल आता रहा, मगर पालतू पशुओं की चराई पर लगी रोक को हटाने का ख्याल एक बार भी नहीं आया. जबकि मालधारियों के पास तो बड़ी संख्या में गिर की मशहूर गाएं थीं, जो अब तेजी से घट रही हैं और जिनके घटने के सवाल पर सरकार भी अब चिंता प्रकट कर रही है.

यहां के लोगों पर चौतरफा मार पड़ी है. सरकार ने जहां उनके काम, धंधे और संसाधनों को उनसे छीना है, वहीं उनकी दुनिया में आए अभावों की ओर पलटकर भी नहीं देखा है. इन मालधारियों का जीवन जंगल पर ही निर्भर था और जब वे जंगल से बेदखल किये गये तो जैसे जिंदगी से ही बेदखल कर दिये गये. सरकार ने विस्थापन से पहले कई वायदे किये लेकिन एक बार जंगल से विस्थापित होने के बाद सरकारी महकमे ने इनकी ओर पलट कर नहीं देखा.

बरदा की पहाड़ियां, पोरबंदर से 15 किलोमीटर दूर हैं. अरब सागर के चेहरे को मानो चूमता सा यह इलाका पोरबंदर और जामनगर जिलों से जुड़ा हुआ है. यहां का जंगल कभी राणावाव और जामनगर के राजाओं के अधीन था, सो अभी भी यह पहाड़ियां राणाबरदा और जामबरदा के नाम से ही जानी जाती है.

पत्थर जैसे जिंदगी
राणाबर्दा और जामबर्दा पहाड़ियों पर कुल 61 बस्तियां बची हैं, जो एक-दूसरे से बहुत दूर-दूर और ऊंची नीची पथरीली जगहों पर हैं. यहां 1154 परिवारों के 6372 लोग रहते हैं, उनमें 14 साल तक के 2774 बच्चे हैं. अब दोनों पहाड़ियों की 61 बस्तियों के इतने बच्चों के सामने जो 14 प्राथमिक स्कूल हैं भी तो उनमें से 7 के भवन नहीं हैं. बाकी 7 प्राथमिक स्कूलों के भवन हैं, मगर उनमें भी छोटे-छोटे 15 कमरे ही हैं. मतलब यहां के सारे बच्चों को ध्यान में रखा जाए तो औसतन 185 बच्चों पर केवल एक कमरा ठहरता है.
दूसरी तरफ, राणाबर्दा के प्राथमिक स्कूलों में तो शिक्षकों की संख्या फिर भी ठीक है, मगर जामबर्दा के 1077 बच्चों के सामने जो 5 प्राथमिक स्कूल हैं, उनमें शिक्षकों की संख्या 6 हैं. मतलब यहां औसतन 180 बच्चों पर केवल एक शिक्षक ठहरते हैं. इन्हीं सबके चलते यहां 14 साल तक के 2774 बच्चों में से केवल 728 बच्चों के नाम स्कूली फाइलों में भरे जा सके हैं. बीते 1 अप्रेल से, केन्द्र सरकार ने देश भर के सारे बच्चों के लिए शिक्षा के अधिकार का कानून लागू किया है, मगर यहां के 2046 बच्चों के लिये तो कम से कम यह कानून नाकाफी है.

सरकारी दावे और उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के उलट यहां की 61 बस्तियों के भीतर 6 साल से नीचे के कुल 1354 बच्चे हैं. लेकिन उनकी देखभाल के लिए एक भी आंगनबाड़ी केन्द्र यहां नहीं है. इसी तरह 192 वर्ग मीटर तक फैली इन दो पहाड़ियों के बीच एक भी जगह ऐसी नहीं है, जहां सरकार ने स्वास्थ्य की कोई सेवा उपलब्ध करायी हो. इसलिए तबीयत बिगड़ जाने पर मरीजों को 25 किलोमीटर तक की दूरी तय करनी पड़ती है. कच्ची और खराब सड़क के कारण गंभीर बीमारी या दुर्घटना झेलने वाले बहुत सारे मरीजों और गर्भवती महिलाओं को दुर्गम रास्तों के बीच ही अपनी जान गंवानी पड़ती है. 

केन्द्र सरकार ने मातृ मृत्यु-दर और शिशु मृत्यु-दर घटाने के लिए एनएचआरएम यानि ‘राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन’ चलाया है. इसी तर्ज पर गुजरात सरकार ने भी एसएचआरएम यानि ‘राज्य ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन’ छेडा हुआ है. मगर यहां से ऐसा लगता है जैसे न केवल स्वास्थ्य सेवा बल्कि बुनियादी सहूलियत से जुड़ी हर एक नीति, योजना और कार्यक्रम से मालधारियों का यह बरदा इलाका छूटा हुआ है. कुछ ऐसे, जैसे 21वी शताब्दी के 10 साल गुजरने के बाद भी यह इलाका 1970 के जमाने में ही छूट गया हो.

31.1.13

अपनी तो पाठशाला

शिरीष खरे


उस्मानाबाद/महाराष्ट्र. तीसरी कक्षा में पढ़ने वाली ललितासीमा और वैशाली स्कूल लगने के एक घंटे पहले ही पहुंच गई हैं. स्कूल की सीढ़ी पर खड़ी ललिता आज का जो पाठ पढ़ा रही है उसे नीचे बैठी सीमा और वैशाली लिख रही हैं. तीनों अपने-अपने काम में इतनी तल्लीन हैं कि उन्हें अपने आसपास का भी ध्यान नहीं है. लेकिन आसपास खड़े लोगों के लिए यह दृश्य साधारण नहीं है.

असल में हम जिस स्कूल की बात कर रहे हैं वह है पारधी स्कूल. पारधी यानी मिथइतिहाससामाजिक परंपरा और कानून के मकड़जाल में फंसी एक ऐसी जनजाति जिसके लिए ऐसा दृश्य दुर्लभ है. इसलिए कम से कम स्थानीय लोगों के लिए यह स्कूल किसी आश्चर्य से कम नहीं लगता.अंग्रेजों ने पारधी जनजाति को अपराधिक जनजाति अधिनियम,1871 के तहत सूचीबद्ध किया था. अंग्रेज चले गए मगर धारणा छोड़ गए. इसलिए आज भी पारधी बस्तियां गांव से कोसों दूर जंगलों में होती हैं. कोई रास्ता इन बस्तियों को नहीं जाता. न ही सरकार की कोई योजना यहां आती है और न बिजलीन पानीन राशन और न ही स्वास्थ्य की कोई सुविधा. इसलिए यहां के लोग कहते हैं कि आजादी के 64 सालों में सरकार ने हमें एक ही चीज दी है और वह है– महादेव बस्ती का यह स्कूल.

महाराष्ट्र के उस्मानाबाद से तकरीबन 125 किमी दूरएक जंगली पहाड़ी के नीचे यहां गिनती के 60 पारधी घरों में 279 बाशिंदे रहते हैं. इनके दिलों से शासन की दहशत कुछ कम तो हुई है लेकिन पूरी तरह से गई नहीं. तभी तो थोड़ी देर पहले हमारी गाड़ी देखते ही ज्यादातर लोग अदृश्य हो गए थे. उन्हें लगा था कि आसपास कोई वारदात हुई होगी जिसकी छानबीन के लिए पुलिस आई है. लेकिन कुछ देर बाद ‘अपनेवाले हैं’, ऐसा कहकर ये एक जगह जमा होने लगे. और अब जिस जगह हम हैंवह है बस्ती की एकमात्र पक्की बिल्डिंग यानी महादेव बस्ती का यह स्कूल. बोर्ड पर स्कूल बनने का साल (1998), बच्चों की कुल संख्या (27), बालक (10) और बालिका (17) लिखा है. एक बड़े हॉल से होकर 2 कमरे खुलते हैं जिसमें चौंथी तक की कक्षाएं लगती हैं. यों तो स्कूल का कार्यालय और उसके पीछे बाथरूम भी है लेकिन 30 गुणा 60 फीट वाले इस स्कूल की पूरी तस्वीर तब बनती है जब लोगों से मालूम होता है कि चार सालों से यहां का परीक्षाफल शत प्रतिशत है. साथ ही यह उस्मानाबाद जिले का आदर्श स्कूल घोषित है.

गांव के सुबराराव शिंदे ने याद करते हुए बताते हैं, 'पहले तो पुलिस के छापे ही लगते थे. कोई शिक्षक आने की हिम्मत नहीं करता था. तब स्कूल की दीवारें थींपर पढ़ाई नहीं. यदि शिक्षक आते भी तो बच्चे नहीं होते. वे इधर उधर खेलते रहते और शिक्षकों को 'ओ मास्टरकहकर चिढ़ाते. हमें लगता कि इस स्कूल के बहाने पुलिस बस्ती पर निगाह रखती है.फिर कोई आठ साल पहले पहल की एक स्थानीय दलित संगठन ने. दलित संगठन ने जब यहां कदम रखा तो कई मुश्किलों का सामना किया. संगठन के कर्ताधर्ता बजरंग टाटे बताते हैं, 'ये हमें पुलिस की ही दोस्त समझते. पूछने पह अपना नाम सलमान या शाहरुख बताते और फोटो तो बिल्कुल नहीं खिंचवाते. हमारा चार साल का समय बच्चों को स्कूल बुलाने में ही चला गया. गांव के कल्याण काले के मुताबिक संगठन के लोगों ने पहले गांव वालों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताया. इससे गांव वालों के अंदर का डर दूर होने लगा. बातों ही बातों में गांव के लोगों ने जाना कि पढ़ाई कितनी जरूरी है. तब पढ़ाई में आने वाली अड़चनों पर घंटों बातें होतीं. टाटे ने बताया कि 2007 को 60 परिवारों के सभी महिला और मर्दों को लेकर एक सर्वे किया. तब समाज ने शाला का मॉडल बनाया. इसलिए शाला का नाम पड़ा- समाजशाला.

समाजशाला के बारे में शिक्षिका प्रतिभा दीक्षित बताती हैं कि इस स्कूल का पाठ्यक्रम सरकारी ही है. बकौल प्रतिभा, 'पहले पहल बच्चों के साथ खास दिक्कत यह रही कि इन्हें पारधी ही बोलनी आती थीजो हमें नहीं आती थी. तब एक दूसरे को समझने के लिए खेलगानेचित्रों और कई चीजों का इस्तेमाल किया गया. धीरे-धीरे बच्चे मराठीहिंदी और अंग्रेजी के पाठ भी सीखने लगे.महादेव बस्ती की महिला सुनिधि शिंदे से पता चला कि स्कूल की ताकत उसकी समिति है. इसे बस्ती की औरतें संभालती हैं. यही बच्चों की हाजिरीउनकी पढ़ाई-लिखाई और दोपहर के खाने का ध्यान रखती हैं. यहां औरतों का अलग से एक समूह है जिसमें सभी हर महिने दस-दस रुपए जमा करती हैं. यह रकम सिर्फ बच्चों पर खर्च होती है. समाजशाला से समन्वयक विठ्ठल खंडागले ने बताया कि स्कूल में बिजलीशौचालयमैदान और मैदान पर बने ब्लैकबोर्ड को युवा टोली की मेहनत का नतीजा है. टोली में अठारह से तीस साल के पारधी युवा 26 जनवरी को एक मेला लगाकर अफसरों के अलावा नेताओं को भी बुलाते हैं. इस साल जिला परिषद अध्यक्ष गोदावरे केंद्रे ने बस्ती में पक्की सड़क बनाने का वादा किया है. इसी तरह बीते साल उपविभागीय पुलिस अधीक्षक विजय महाले ने पारधियों के दिलों में पुलिस के डर को दूर करने के लिए कार्यशाला रखी थी.

चार साल पहले महादेव बस्ती ने अपनी पंचायत में जो फैसला लिया उस पर मराठवाड़ा के कई लोगों को आज भी यकीन नहीं होता. उस दिन पूरी बस्ती इस बात पर एकमत हुई कि अगर हमारा बच्चा यदि हमारी गलती से स्कूल नहीं जाता तो हम आर्थिक जुर्माना देंगे. जो बस्ती शिक्षा के दीपक से दूर रही थी उसी बस्ती ने पढ़ाई-लिखाई का यह मतलब जाना था. तब से स्कूल में बच्चों की शत प्रतिशत उपस्थिति दर्ज होने लगी और एक भी बच्चा ड्रापआउट नहीं हुआ. प्रधानाध्यापक राम डाहवे ने खुशी जाहिर करते हुए बताते हैं, 'स्कूल की तारीफ तो कलेक्टर भी करते हैं. समय के साथ पढ़ाई भी बदल रही है. अब हर काम कम्प्यटूर पर होने लगा है. इस इलाके के कई स्कूलों में कम्प्यटूर नहीं पहुचें लेकिन इस साल यहां दो कम्पयूटर दिए हैं.समाजशाला अब देश भर को यह संदेश दे रही है कि अगर पारधी बस्ती के भीतर एक स्कूल इतना बदलाव ला सकता है तो दूसरी बस्तियों के सरकारी स्कूल क्यों नही.

देखा जाए तो सिर्फ स्कूल बनाने की कोशिशें ही काफी नहीं हैं. इस बस्ती के लोग गांव से बाहर होने के कारण मतदातासूची से छूटे हुए  हैं. फुलादेवी (बदला नाम) बताती हैं, 'पुलिस की ज्यादतियां रूकी नही हैं. आसपास कोई चोरी हुई नहीं कि वह यहां आ धमकती है. लेकिन बच्चे समय के पहले स्कूल पहुचंते ही हैं.जाते समय हमने उनसे इतना ही कहा 'बदलाव की यह आदत रहनी चाहिए.लेकिन कक्षा 4 के बाद यह आदत रह पाएगी या नहीं कोई नहीं जानताक्योंकि आगे की पढ़ाई के लिए यहां से बाहर जाना होगा. और इस बस्ती से दूर जाने से बच्चे तो क्या बड़े भी डरते हैं.

शाम ढल चुकी है लेकिन पारधी गानों की धुन पर बच्चों का थिरकना जारी है. बिछड़ते समय पहली के कुछ बच्चो ने घेर लिया. उनमें से दीपक शिंदे ने कहा, 'अरे हमारी एक कविता तो सुनते जाओ.'
हमने कहा, 'कौन-सी?'
वह बोला, 'सूरज को तोड़ने जाना है.'
हमने कहा, 'अगली बार तोड़ कर सुनाना.'

8.1.13

Cities and cities




By Shirish Khare


Cities have become alike - unidentifiable from each other. Just like the houses that the 40 thieves found when the came to visit Ali Baba. And policies that draw up such uniform plans also unsettle the lives of millions in these cities.

Large cities have been the center of development in India. They have been the centers of manufacturing, of markets, of consumption and of wealth. But they are also the locus of much inequality. Large sections of the city are home to poverty, hunger and unemployment. The rural poor have migrated to the cities with the expectation of better livelihoods and earnings. Infrastructure of cities have not been able to deal with the needs of rural immigrants. The face of most Indian cities has illness and hunger juxtaposed with glamour and wealth.

There are many cities within each city. The first is a clean, orderly structure humming with capitalists, traders and technocrats. People here are safe and wealthy with access to luxuries. They are deemed the builders of a developed India. Another is of slums. Of filth, of clutter, and crowds. People are unsafe and insecure. Their jobs are insecure, their homes are insecure. They are deemed the hurdles to a developing India.

Cities have developed policies to limit the encroachment of slums in public places through force and by continuing 'development' programs to beautify and develop the cities.  While those who live in the slums provide the labour for development, and for profits, their labour is not valued - financially or socially. As a result, the state of the labourers degenerates - there is increasing poverty in the city. There is increased exploitation. Urban poverty is a result of the absence of exploitation of the poor as well as the incompetence of the city governments.
The urban poor are constantly looking for employment and a place to live. In India today, unorganized sector makes up for 93% of labour. Often used as contract labourers, they have little opportunity to participate constructively or creatively in the economic or political processes of the city. Continued to be exploited, they are unable to plan or build their own lives. With industries able to make do with contract workers where regulations are lax and commitment to the worker minimum, unemployment levels continue to grow. Over 5 crore people in India live in urban slums.

Since these slums are deemed illegal, there are no facilities provided. They have no access to financial, legal or social infrastructure that cities provides it citizens. There are no hygiene or health facilities available to these citizens. Thus, citizens of these slums are even more vulnerable - politically, legally and to illnesses. Thus, a large section of the poor is not able to escape the vicious cycle of poverty. Economic, social and political forces ensure this stays true.

The urban poor lives in the city but is still unable to access the infrastructure that a city provides. They are marginalized to  living on the edges - figuratively (as described above) and literally (living on the footpath and along railway tracks). Thus, the rights of the urban poor are easily bypassed. In fact, their activities are constantly under suspicion. As a result, the poor does not want to make themselves visible, even to ask for their rights. Urban programs that claim beautification or infrastructure development continue to push the urban poor knowing fully well that they can push the poor even further into marginalization.

It is difficult for the poor to organize against such urban programs. Often they are rural immigrants from different regions, speaking different languages and with different religious or caste backgrounds. In addition, they experience different levels of poverty. Their access top infrastructure is also varied.  The basis for organizing is weak.

On the other hand, government bodies are constrained by limited land, money and other infrastructural capabilities. In Mumbai for example, land is unavailable. 50% of the population lives in slums. But this occupies only 8% of the total land in Mumbai.  While the government reckons that every individual needs 5 square meter and a family needs 25 sq.m., that is hardly true. Thus, the absence of housing is one of the biggest problems with the urban poor.

The government's intent and capability to provide for infrastructure is also questionable. While governments are chosen to help arrange for infrastructure for all, by privatizing such services, they have encouraged the provision of those services that have profits over others that are needed for human existence and living. After all, private companies are interested in consumers, not citizens and the urban poor have very little income that can be used for consumable services.

The model of development in these urban centers is not based on participation by citizens but of technocrats and businesses. The processes of governance today has very little connectivity with citizen groups and their needs. While on the one hand there is rhetoric about decentralization of power to increase citizen participation in governance, on the other hand, privatization of infrastructure needs is resulted in a breakdown of such participation. As a result, the role of governance has become limited to supervision of contracts.

With globalization in force these days and with institutions of globalization considered as experts in development policies, the space for conversation with citizens and for their dissent has become marginalized. In fact, dissent is being politically discouraged, even put down. This is counter to the 74th constitutional amendment that recognizes the role citizen participation in policy making and its role in ensuring development of all. While the amendment lay down specific mechanisms to ensure participation, the reality of urban governance has no place for such participation of the urban poor.

The development of a city requires that everyone be a part of the development process. In the absence of such inclusiveness, the chasm between the rich and the poor will not be bridged. The government has come up with innovative ways to reduce urban poverty - by not counting the poor. For example, Mumbai has only 18000 people with the yellow ration card. Only  24000 people are considered below poverty line. Thus, on one hand politicians innovatively engineer reduction in poor and on the other hand ask for votes based on people being poor.

A city should be the residence of all its population. Development for all is possible only if all are involved in development of policies. This is true not only for housing but for policies related to infrastructure development, economic policies, budget and finance, etc.  Development should not be based on the economic progress of a small group at the cost of everyone else. For such progress for a few only happens at the cost of exploitation of the rest.

7.1.13

No End to This Night


By Shirish Khare


As soon as I got off at Ajmer railway station, I called Bhanvaribai’s mobile phone. In an unsure voice she said, “Since you have come to write about women’s issues, why don’t you come directly to the Ajmeri Gate police station?”. Somewhat astonished, I asked, “What has happened?”. She replied, “come here and you will find out. We are 50 year old women here. You are a young man. They slapped us a few times and sat us down at the police station. So come only if you feel comfortable.”

I felt that it was better to go to the police station rather than return to Mumbai. Seeing my luggage, the auto-rickshaw driver asked if I wanted to go to a hotel. But when I replied that he should take me to a police station, he was started. At the police station, the station in-charge, Satish Yadav sat behind a table that said “Truth Shall Prevail” and in front of a large framed photograph of Mahatma Gandhi. But he seemed at 180 degrees to both those philosophies. He curtly I asked who I was but walked off before I could say anything.

The issue at hand is not how big or small the case was against these women or what is considered to be a big case. What needs to be recognized is that when there are instances of oppression against Dalits – especially Dalit women – everyone from the neighborhood, the village Panchayat, the police and the local courts all assume an attitude that makes justice impossible.

The police station officer – incharge is bothered that almost every week three cases of oppression against Dalit women is registered from Rasulpura village. The Women’s Rights Commission claims that instead of protecting these women as per special laws put in place to prevent oppression, the police station in-charge will often arrest those who come to file the case. For example, Sualal Bhambhi from Rasulpura, along with his wife Geetadevi and daughter Renu had come to file a case against Biram Gujjar for trying to take away their cow and for physical abuse in trying to do so. Instead, the police arrested Sualal Bhambhi saying that the true culprit will become apparent after investigation. When the Women’s Rights Committee and the Dalit Rights Center intervened, he was let go. While the police were willing to look into the case of a stolen cow, they were unwilling to look into the case of violence against his wife and daughter.


Rasulpura is hardly 10Km from Ajmer, on the highway to Jaipur. 600 Muslims, 150 Gujjars and 50 dalits live in this community. In the last few years, 20 dalit families have had to dump their land and property at give-away prices and move to Ajmer. The rest of the Dalit families also have had to move their houses about 0.5Km from the village, practically living in their fields. This is India where dalits still cannot sit in the community gathering, cannot use water from the village handpump, and are fearful of riding a bicycle. Only 10 years ago, Harikishen master broke the age-old taboo that dalits could not ride a horse to their wedding (as is common practice among Hindus in this region).

15 years ago, Chaggibai won a panchayat seat (without any reservation) – however, within 6 months, the rest of the Panchayat community impeached her because they felt that her election affected the prestige of the village. Chaggibai won without reservations because there were many contestants from the higher caste communities. However, when she won, higher caste men surrounded the school building in the village and Chaggibai had to be rescued by police.

15 years ago, the women of this village decided to speak out about their rights – they formed “Women’s Rights Committee”. Women paid Rs 2 to join the group – and 12 women joined. They used the committee to talk about their daily problems and its solutions. Bhanvaribai says that after 5 years of the committee’s functioning, when it also started to voice opinions on child marriage, and casteism, there was opposition to the group. When dalit women began to take objection to caste-based insults and abuses, upper caste people asked why there was a sudden objection – after all, this had been happening for years. Now, though, this began to cause conflict.

The Dalit community used government land to go to their farms. On 6th June, Teja Gujjar dug a trench in this path and placed barbed wire, making it difficult for people to se this path. When Bhanvaribai requested to talk to Teja Gujjar to resolve this issue, he threatened to kill her (using language not printable). When the Dalit women approached Teja’s older brother who is also a member of the village panchayat, saying that they had voted for him and wished he would intercede, he suggested (sarcastically) that they take the matter to the police. The fact was that these brothers had been trying to buy up dalit land at low prices in a number of neighbouring villages. They hoped that by troubling the dalit community, they could get them to sell and move.

When the Dalit women approached the police outpost at Nareti, the police said that they would file a case only after investigation. When a dalit constable named Kailash came to the Gujjar brothers to find out about the events, he was insulted. The Dalit women then went to Ajmeri gathe police station which was already quite unhappy about numerous Dalit cases.

Kalyanji, a Dalit villager, says that the upper caste members of Rasulpura are interested in taking over 30 acres of land that belongs to the dalits as well as 4 acres of government land. 1 acres costs about Rs 100000. Land is the primary source of income for these dalit communities. With drought that has hovered over these villages for the last 10-15 years, they often have to supplement this income with unskilled labour. In these conditions, numerous upper-class people have attempted to push the dalits ou of their land. On 12th February, Mamchand Ravat along with some other men entered Shankarlal’s house, and beat him up. Despite the intervention of Dalit Rights Center, a case was filed only after 3 months and its been 6 months and nothing further has happened. Teja and Amba Gujjar have been involved in other incidences where they have beaten up women. A report was filed only after the local SP intervened but there has been no progress since.

In an interesting case of communal collaboration, the muslim community is providing support to the Gujjars – a result of political and social alliances. Two big Muslim traders have provided political support to the Gujjars. One even threatened major violence if even one Gujjar was arrested.

The Police station officer is obviously bothered by the number of dalit ventures to file cases for oppression – the officer in-charge has attempted to help the dalit ‘understand’ that this police station is not just for Rasulpura.

5.1.13

Apni To Pathshala

By Shirish Khare


Usmanabad, India: Lalita, Seema and Vaishali of class III are in schooltoday an hour early. Seema and Vaishali are busy writing down the lesson Lalita reads aloud on the school staircase. Their hair neatly plaited, they look every inch the eager school students they are in their white and blue uniform and black shoes. So engrossed is Vaishali in her morning lesson that she has forgotten to unburden her tender shoulders of the heavyschool bag.

This all too familiar scene of an ordinary day in school that is part of every child’s life is nothing short of a miracle for the local residents here. Because the school in this case is that of the ‘Pardi’ tribe enlisted by the British under the ‘Criminal Tribes Act 1871’. Though the British have long left India, this community continues to live on the margins of society – literally. The tribe lives in jungles, miles away from human habitation in the most uninhabitable conditions where roads, electricity, water, health centres or even a semblance of a Government project remain a distant dream. In these glorious 60 years of India’s independence, the only thing this tribe has managed to claim as its own though is this lone governmentschool of Mahadev Basti.

Tucked away in the foothills, 15 kms from the Tehsil Head Office, the nondescript Basti has 279 people living in 60 tiny huts. Far from looking to it for security, government is a term these people have come to associate with fear. They took us for the police out for on one of their routine ‘investigations’ and vanished into their huts. Only after reassured that we were not the police did they meet us in the only concrete construction of the Basti – the Mahadev Basti school building. A board announces the year it came into being – 1998, the number of students – 27, girls – 10 and boys – 17. The school has a large hall leading to two rooms where classes between class I and IV are held, an office and a toilet. But the true picture of this 30X60 school became clear to us only when we were told that in the last two years the school has achieved a result of 100% and is now counted among the better schools of the Zilla. “Until a few years ago”, reminisces Subrarao Shinde, “there were police raids more often than not because of which no school teacher dared to set foot in the schoolpremises. Even if a few did, there would be no students. We felt the schoolwas an excuse for the police keep an eye on us.

When ‘Lokhit Saamaajik Vikas Sansthan’ first came to this Basti, it met a lot of resistance. Bajrang Tate of the Sanstha told us, “The people here were suspicious of us taking us for police aides. They wouldn’t tell us their names and would refuse to be photographed. What helped us deal with that situation and win over the trust of the people was our work of several years with the Pardi tribe in close partnership with Child Rights and You (CRY)”. “They would spend a lot of time with us”, added Kalyan Kale, a local, “and we slowly began trusting them. They would spend hours discussing with us the importance of education”. Bajrang Tate chipped in, “Then we did a survey with 139 women and 149 men from 60 families and came up with the model of a school. That’s how Samajshala was born in 2007”.

Pratibha Dikshit, a Samajshala teacher elaborates, “We follow the government-prescribed syllabus here at the school. We are three of us here at the school who have been trained to involve children both in academics and extra-curricular activities. Sanjay Tambare, another teacher at Samajshala volunteered, “Initially we faced problems with the children here because they could only speak Pardi, their native dialect that we did not understand. We had to use songs, games, pictures etc. to communicate to each other. Now the children have learnt Marathi, Hindi and even English”. Sunidi Shinde informed us, “The real strength of the school is its committee run by the women of the Basti. The committee manages students’ attendance, their lunch and overall academics. Every woman in this women’s collective – the school committee contributes Rs 50 every month that is spent on the school and school children.”

Vitthal Khandagale, a Samajshala worker, attributes the school playground, the blackboard standing on it, toilet and electricity to the sheer hard work of the local youth group. He elaborates, “The youth group comprising young men of 18 to 30 years holds a fair every August. They invite government officials and politicians. This year they’ve invited the Zilla Parishad President Godavari Kendre and she has promised us water, electricity and roads in the Basti. Also, Vijay Mahale, Sub-divisional Police Officer, had held a workshop for the locals to allay the fear of the police from their minds.” Adds Vinayak Taur, “We already have in place the school primary health centre that holds health camps every month where health check-ups are conducted not only for the children but also for adults. A toilet for girls, library and schoolboundary walls are next in our demands for the school.”

The panchayat of Mahadev Basti took a decision on Dec 5, 2007 that took many people in the Zilla by surprise. They unanimously decided that if they hindered a child’s education, they would pay penalty for it. This was the turning point in the life of Mahadev Basti. After that day, the school started seeing 100% attendance and no drop outs. The school Principal, Ram Dahve proudly declares, “The District Collector recognises the success of the school too. With time education, like most things, is changing too. Computers are fast becoming the norm. Even though computers are yet to reach our district, the school has two computers this year, thanks to ‘Lokhit’.” Kumar Neelendu, General Manager, Child Rights and You (CRY), “We are campaigning for a Common School System across the country. This schoolis an example of that. Free and fair education can only be achieved through the Common School System. Government schools in other Bastis can take a cue from this school in the Pardi Basti that has transformed lives.”

During our interactions with the community, we realised that the people of the community want to fight for their democratic right to citizenship so far denied to them. Living on the periphery of the village has kept them out of the voters’ list too all since independence. They do not even have the basic right to their own land. Some work as agricultural labourers on sugarcane farms for 6 to 8 months while others migrate to Mumbai along with their children who often get embroiled into the gruesome underbelly of Mumbai. Though we often see media stories on the Mumbai underworld, the socio-political dynamics involved find no mention in them. These aspects remain unspoken even in the midst of all the din of news.

Phoola Devi (name changed) reveals, “State atrocities show no signs of stopping. The police come to our Basti the moment any crime, no matter how petty or serious, is reported in the neighbouring village. But we don’t let that hinder our children’s education.” We reassured them that we must always strive for change. But we soon realised it’s easier said than done. The Basti school has classes only upto class IV after which children would have to travel 5 kms to the nearest school in Itkur. This seemingly innocuous commute is a daunting task as not just children but even adults fear venturing out of the Basti. The tribe continues to preserve its tribal culture, tradition and history, visible in their lifestyle and display of vibrant tribal art in the school. The children danced to the lilt of Pardi songs, silhouetted in the fleeting twilight. As we were leaving, children of class I huddled around us. One of them said, “Hey, listen to our poem.” We asked, “Which one?” “I want to claim the sun.” “Tell me when you have claimed it.”