29.4.11

मप्र में 60 फीसदी से ज्यादा बच्चे कुपोषित: क्राई

नई दिल्ली/भोपाल. मध्य प्रदेश एक बार फिर गलत वजह से चर्चा में है। ताजा मामला राज्य में बच्चों के कुपोषण को लेकर है।

बच्चों के अधिकारों की वकालत करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) ने मध्य प्रदेश के दस जिलों में किए गए सर्वे के आधार पर दावा किया है कि यहां कुपोषित बच्चों की संख्या 60 फीसदी से ज्यादा है।

क्राई का कहना है कि पूरे राज्य में आदिवासी समुदाय के 74 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। चौंकाने वाला तथ्य तो यह है कि राजधानी भोपाल की पुनर्वास कॉलोनियों के 49 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार पाए गए हैं।

संस्था के प्रदेश में इस सर्वे को पूरा करने वाले विकास संवाद के प्रशांत दुबे का कहना है कि सिर्फ रीवा जिले में अकेले 83 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार पाए गए हैं।

रीवा में 2006 से 2009 के बीच करीब 15 हजार बच्चों की कुपोषण से मौत हो चुकी है जबकि अन्य जिलों में भी कुपोषित बच्चों का आंकड़ा सरकारी आंकड़े से बहुत अधिक है।

संस्था द्वारा राजधानी भोपाल की पुनर्वास कॉलोनियों में कराए गए शोध के आंकड़े और भी ज्यादा चौंकाने वाले मिले हैं। भोपाल के लगभग 11 रिसेटमेंट कॉलोनियों से इकट्ठा किए गए आंकड़ों से पता चला है कि यहां के 49 फीसदी बच्चे कुपोषण से ग्रसित हैं। जबकि इन्हीं इलाकों के 20 फीसदी बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार पाए गए हैं।

दिल्ली में क्राई की निदेशक योगिता वर्मा का कहना है कि भले राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान राज्य के सभी महिलाओं के मामा होने का दावा करें। लेकिन वे अभी भी राज्य के मासूम बच्चों को कुपोषण से निजात दिलाने में नाकाम साबित हुए हैं।

राज्य बच्चों के बेहतर देखभाल के लिए जरूरी आंगनबाड़ी का भी पूरी इंतजाम नहीं करा पाए हैं। अभी भी पूरे मध्य प्रदेश में लगभग 47 प्रतिशत आंगनबाड़ियों की कमी हैं।

क्राई की निदेशक ने आगे कहा कि राज्य सरकार को सबसे पहले यह कबूलने की जरूरत है कि यहां कुपोषित बच्चों की संख्या सरकारी आंकड़े से कहीं अधिक है, तभी इसे रोकने की सही शुरुआत हो सकेगी।

क्राई के एक अन्य सदस्य आरबी पाल का कहना है कि राज्य में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लगभग 74 फीसदी बच्चे भी कुपोषण के शिकार पाए गए हैं।

आरबी का कहना है कि अगर राज्य में कुपोषण को हटाना है तो सरकार को तुरंत आंगनबाड़ी और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत चलने वाले योजनाओं को दुरुस्त करने की जरूरत है। इसके अलावा महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना को भी बेहतर ढंग से लागू करने की दरकार है।

27.4.11

संप्रेक्षण गृह में कई खामियां

आगरा : किशोर संप्रेक्षण गृह में बुधवार को पहुंची क्राई की टीम को खामियां मिलने के साथ ही कई चौंकाने वाली जानकारियां भी मिलीं।
क्राई (चाइल्ड राइट एंड यू) की सदस्य विनीका कारौली व मानवाधिकार कार्यकर्ता नरेश पारस अपराह्न लगभग दो बजे से शाम पांच बजे तक रहे। इस दौरान वहां रहने वाले किशोरों से बातचीत करके उनकी दिक्कतों के बारे में जानकारी की। टीम के सदस्य नरेश पारस ने बताया एक बच्चे ने अपनी उम्र आठ व दूसरे ने दस साल बताई। जबकि एक ने अपनी उम्र 20 साल बताई। गौरतलब है कि किशोर संप्रेक्षण गृह में 12 से 18 साल तक के बच्चों को रखा जाता है। नियमानुसार एक बच्चे को छह माह से अधिक वहां नहीं रखा जा सकता जबकि किशोर गृह में ऐसे भी बच्चे थे जो तीन साल से भी अधिक समय से वहां रह रहे थे। एक किशोर दहेज एक्ट का भी मिला। किशोर गृह की क्षमता 75 की है जबकि वहां 92 किशोर थे। जिसमें 10 से 14 साल तक के 17 बच्चे थे। जबकि 15 से 18 साल तक 77 किशोर थे। निरीक्षण के दौरान कर्मचारियों को व्यवहार के लिए खास हिदायत दी गयी। साथ किशोर गृह की पुरानी हो चुकी इमारत की जगह नई बिल्डिंग बनवाने की जरूरत भी बताई। इस दौरान जिला प्रोबेशन अधिकारी दिलीप कुमार, संप्रेक्षण गृह के सहायक अधीक्षक डा. सुभाषचंद मिश्रा आदि मौजूद थे।

14.4.11

अन्ना, अनशन, समय और तरीका

शिरीष खरे

भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए अन्ना हजारे ने सही समय पर सही तरीका अपनाया है. अन्ना के प्रभाव और उनके समर्थकों के प्रयासों से कहीं ज्यादा देश के भीतर विश्वसनीय नेतृव्य के अभाव में छटपटा रहे आम आदमी की बैचनी ने पूरे आंदोलन को सफल बनाया है. जंतर-मंतर पर हमने प्रलोभनों से खीचा गया मेला नहीं बल्कि तंत्र को दुरूस्त करने का ऐसा लोक था जिसके पीछे न किसी राजनीतिक दल का बल था और न किसी धर्म का जोर. और तो और जिस तबके पर वोट न डालने की तोहमत लगती है वह भी यही मौजूद था. बीते एक दशक से मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले जानकार बता रहे थे कि भ्रष्टाचार अब ऐसा मामला बन चुका है जो जनता को आंदोलित नहीं करता है. लेकिन स्थिति अब उतनी भी निराशाजनक नहीं है जितनी कि कुछ दिनों पहले हुआ करती थी. आजादी के बाद यह पहला आंदोलन है जिसमें एक कानून के समर्थन में पूरा देश एकजुट हुआ. इस आंदोलन ने भ्रष्टाचार को इस देश का सबसे बड़ा मामला बना दिया है.

जहां छोटे से आंदोलन में तनाव की स्थितियां बिगड़ते देर नहीं लगतीं वहीं इस आंदोलन में जर्बदस्त अनुशासन देखने को मिला. जंतर-मंतर पर दि-ब-दिन जनता हजारों की संख्या में जमा होती जा रही थी लेकिन पुलिस के किसी तरह की कोई शिकायत नहीं पहुंची. इन पांच दिनों में न तो आसपास के इलाके की सार्वजनिक संपत्ति को कोई नुकसान पहुंचा और न ही चोरी या अभद्रता जैसा कोई समाचार सुनने को मिला. हर दिन जनसैलाब का जुनून जैसे अपने साथ अपना संयम भी ले आया था. दूसरी ओर अन्ना हजारे के 97 घंटों के अनशन में इंटरनेट के जरिये तकरीबन 45 लाख लोगों ने आंदोलन को लेकर अपनी भावनाएं जाहिर कीं. इस दौरान गूगल इंडिया पर सबसे ज्यादा सर्च किए जाने वाले अन्ना हजारे को फेसबुक पर करीब 11 लाख लोगों ने पसंद किया. सरकार पर इतना दवाब था कि शनिवार रात को करीब 2.30 बजे सरकारी प्रेस खुलवाकर गजट अधिसूचना को प्रकाशित करवाया गया.

पूर्व कानून मंत्री और प्रारुप के लिए गठित संयुक्त समिति के को-चेयरमेन शांतिभूषण का मानना है कि देश के प्रभावशाली लोग जब भ्रष्टाचार करते हैं तो उनके खिलाफ कोई गहन जांच पड़ताल नहीं होती है. इसका एक कारण जांच एंजेसियों का किसी न किसी के दवाब में काम करना है. इससे जहां शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार बढ़ता ही जा रहा है वहीं कोई नतीजा न मिलने से जनता निराश होती जा रही है. असल में हमारे यहां भ्रष्टाचार से निपटने की कोई मजबूत व्यवस्था नहीं है. जन लोकपाल कानून इस दिशा में जनता की निराशाओं को दूर करेगी. इसमें जहां दोषी साबित होने पर भ्रष्टाचार की कमाई को जब्त करने का प्रावधान रहेगा वहीं प्रशासनिक जवाबदारी को ध्यान में रखते हुए अगर कोई अधिकारी समय पर अपना काम पूरा नहीं करता है तो उस पर जुर्माना लगाया जाएगा. कोई भी पीडि़त नागरिक लोकपाल के पास अपनी शिकायत दर्ज करा सकता है और शिकायत की जांच निश्चित समयसीमा में पूरी होगी.

एक तरफ सरकार कहती रही कि वह भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने चाहती है और दूसरी तरफ से उनके प्रवक्ताओं ने लोकत्रांतिक तरीके से चुने गए प्रतिनिधियों की स्वायत्तता का सवाल उछाला. असल में अन्ना और सरकार के बीच हुआ यह समझौता असामान्य परिस्थितियों की देन है जो सरकार की भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए केवल खोखले आश्वासनों से बनी़. इन्हीं खोखले आश्वासनों के चिढ़ी जनता अन्ना के समर्थन में सड़को पर आकर संसंद पर दवाब बना रही थी. जनता यह भली भांति जानने लगी थी कि कैसे न केवल एक के बाद एक घोटाले हो रहे हैं बल्कि उनके लिए जिम्मेदार लोगों को कैसे बचाने के प्रयास भी किए जा रहे हैं.

यह आंदोलन केवल सरकार के विरोध में नहीं बल्कि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था के विरोध रहा. इसलिए शरद यादव, ओम प्रकाश चैटाला, उमा भारती और मेनका गांधी जैसे राजनेताओं को उल्टे पैर लौटना पड़ा जो समर्थन जताने के लिए जंतर-तंतर पहुंचे थे. लोकपाल विधेयक को लेकर लंबे समय से संघर्ष कर रहीं सामाजिक कार्यकर्ता अरूणा राय कहती हैं कि इस विधेयक की मूल भावना से हमारी किसी तरह की असहमति नहीं है लेकिन हम चाहते हैं कि जो आखिरी मसौदा बने उसमें ज्यादा से ज्यादा जनता की भागीदारी सुनिश्चित हो. अरूणा राय का मानना है कि हजारे और करोड़ों भारतीयों की भावना को देखते हुए केंद्र सरकार को चाहिए कि वह तुरंत जन लोकपाल विधेयक को कानून में बदलने का भरोसा दिलाए.

3.4.11

मुफ्त शिक्षा का दावा खोखला साबित हुआ

शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के एक साल बाद भी बच्चों के लिए शिक्षा पूरी तरह मुफ्त नहीं है। 20 पर्सेंट स्कूल अब भी प्रवेश शुल्क ले रहे हैं। 42 पर्सेंट स्कूल पाठ्य सामग्री के लिए पैसे वसूल रहे हैं और 30 पर्सेंट स्कूल ऐसे हैं, जिनमें पूरे साल दाखिला नहीं दिया जाता। एक साल पहले शिक्षा का अधिकार कानून इस मकसद से लागू किया गया था कि सभी बच्चों को शिक्षा मिले। लेकिन अब भी स्कूल बच्चों को अलग-अलग वजहों से एडमिशन देने से मना करते हैं। स्कूलों में बच्चों की पिटाई में भी कोई कमी नहीं आई है। गरीबी और सरकारी उपेक्षा की वजह से बच्चों की एक बहुत बड़ी आबादी शिक्षा से वंचित है। रंगपुरी पहाड़ी बस्ती महिपालपुर में रहने वाली फरजादी चाहकर भी स्कूल नहीं जा पा रही है। फरजादी के पिता कूड़ा बीनते हैं और मां घरों में नौकरानी का काम करती है। वह बताती की पिटाई में भी कोई कमी नहीं आई है। गरीबी और सरकारी उपेक्षा की वजह से बच्चों की एक बहुत बड़ी आबादी शिक्षा से वंचित है। रंगपुरी पहाड़ी बस्ती महिपालपुर में रहने वाली फरजादी चाहकर भी स्कूल नहीं जा पा रही है। फरजादी के पिता कूड़ा बीनते हैं और मां घरों में नौकरानी का काम करती है। वह बताती कि जब मैं पहली क्लास में पढ़ती थी, तो अचानक गांव जाना पड़ा। तब स्कूल में बिना बताए मैं गांव चली गई। लौटकर आई, तो स्कूल ने कुछ कागज मांगे, जो मेरे पास नहीं थे और मेरा स्कूल छूट गया। मुझे स्कूल में दोबारा दाखिला नहीं मिला। मैं आज भी पढ़ना चाहती हूं। असलम और अकील भी शिक्षा से वंचित हैं। मधुबनी का रहने वाले असलम को उसके मामा बहला-फुसलाकर दिल्ली ले आए। यहां उसे काम पर लगा दिया, जहां उसे 12-14 घंटे काम करना पड़ता था। उसे इस बाल मजदूरी से तो आजादी मिली, लेकिन आज भी वह स्कूल जाने के लिए तरसता है। एक बच्ची ने बताया कि वह जेजे कॉलोनी के सीनियर सेकंडरी स्कूल में पढ़ती है। वहां न तो टॉयलेट का सही इंतजाम है और न ही पानी की व्यवस्था। उसने कहा कि स्कूल के भीतर बाहर के लड़के घुस आते हैं और छेड़छाड़ करते हैं। एक बच्चे ने बताया कि मुझे जब सभी स्कूलों ने एडमिशन देने से मना कर दिया, तो मैं एक एनजीओ के स्कूल में पढ़ने लगा।

आरटीई कानून लागू होने के एक साल बाद भी एक चौथाई बच्चे स्कूल से बाहर हैं, जबकि सरकार कहती है कि बच्चों को स्कूल लाने के विभिन्न प्रयास किए गए। मध्य प्रदेश, यूपी, बिहार, राजस्थान, झारखंड सहित नौ राज्यों में मुफ्त शिक्षा अधिकार लागू ही नहीं हो पाया है। सर्वे में पाया गया कि 24 पर्सेंट बच्चे स्कूल से बाहर हैं। 17 पर्सेंट बच्चों को पाठ्य सामग्री नहीं दी गई है। 50 पर्सेंट स्कूलों में स्कूल प्रबंधन समिति ही नहीं बनी है। 16 पर्सेंट स्कूलों में पीने के साफ पानी का इंतजाम नहीं है। 33 पर्सेंट स्कूलों में अलग से टॉयलेट की व्यवस्था नहीं है। यूपी और झारखंड में अब भी राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग नहीं बने हैं।

क्राई संस्था की सीईओ पूजा मारवाह ने कुछ समय पहले मुंबई में एक सेमीनार में बताया था कि सिर्फ दस राज्यों ने ही अपने यहां आरटीई कानून को अंतिम रूप दिया है। उन्होंने कहा कि मुफ्त और गुणवत्तायुक्त शिक्षा देने वाले स्कूलों के अभाव में बाल मजदूरी में भी इजाफा होता है।